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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
    ऋषिः - पृषध्रः काण्वः देवता - प्रस्कण्वस्य दानस्तुतिः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तत्रो॒ अपि॒ प्राणी॑यत पू॒तक्र॑तायै॒ व्य॑क्ता । अश्वा॑ना॒मिन्न यू॒थ्या॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत्रो॒ इति॑ । अपि॑ । प्र । अ॒नी॒य॒त॒ । पू॒तऽक्र॑तायै । विऽअ॑क्ता । अश्वा॑नाम् । इत् । न । यू॒थ्या॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्रो अपि प्राणीयत पूतक्रतायै व्यक्ता । अश्वानामिन्न यूथ्याम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्रो इति । अपि । प्र । अनीयत । पूतऽक्रतायै । विऽअक्ता । अश्वानाम् । इत् । न । यूथ्याम् ॥ ८.५६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 56; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (तत्रो अपि) उनमें भी निश्चित रूप से ही (पूतक्रतायै) पावन ज्ञान एवं संकल्परूपा ऐश्वर्यशक्ति हेतु (व्यक्ता) विविध गमनशील उन्होंने (अश्वानाम् इत् न) मानो वेगवान् घोड़ों के ही (यूथ्याम्) समूह में सम्भव शक्ति का (प्र अनीयत) प्रणयन किया॥४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में जो पशु इत्यादि ऐश्वर्य प्रदर्शित हैं उसे और अधिक शक्तिमान् बनाने का संकेत इस मन्त्र में लगता है॥४॥

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