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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 15
    ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निर्हर्वीषि वा छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उप॒ स्रक्वे॑षु॒ बप्स॑तः कृण्व॒ते ध॒रुणं॑ दि॒वि । इन्द्रे॑ अ॒ग्ना नम॒: स्व॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । स्रक्वे॑षु । बप्स॑तः । कृ॒ण्व॒ते । ध॒रुण॑म् । दि॒वि । इन्द्रे॑ । अ॒ग्ना । नमः॑ । स्वः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप स्रक्वेषु बप्सतः कृण्वते धरुणं दिवि । इन्द्रे अग्ना नम: स्व: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । स्रक्वेषु । बप्सतः । कृण्वते । धरुणम् । दिवि । इन्द्रे । अग्ना । नमः । स्वः ॥ ८.७२.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (स्रक्वेषु) मुख आदि शरीर के अंगों के हितार्थ परमप्रभु की सृष्टि के भाँति-भाँति के पदार्थों का (उप बप्सतः) उपभोग करते हुए साधक (दिवि) ज्ञान के प्रकाश को (धरुणम्) अपना धारक बल (कृण्वते) बनाते हैं और इस तरह (इन्द्रे) सब ऐश्वर्यों के स्वामी एवं (अग्ना=अग्नौ) ज्ञानप्रदाता अग्रणी प्रभु के प्रति (स्वः) परमसुख को (नमः) नम्रता से समर्पित करते हैं॥१५॥

    भावार्थ - प्रभु ने सृष्टि में भाँति-भाँति के पदार्थों की रचना इसलिए की है कि मानव उनका समुचित उपभोग अपनी पाचनशक्ति से कर अपनी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्ति बढ़ाये--यही इन्द्ररूप परमात्मा की उपासना है; इस उपभोग में उपयुक्तता तभी आ सकती है जबकि यह उपभोग ज्ञान के प्रकाश में किया जाय--प्रत्येक पदार्थ के गुणों का ज्ञान पा कर उनसे समुचित लाभ उठाये। यही ज्ञानस्वरूप अग्नि (परमेश्वर) की उपासना है। इन्द्र व अग्नि रूप में प्रभु की ऐसी उपासना करने से प्राप्त होने वाले दिव्य सुख को हम इस तरह उसी को समर्पित कर देते हैं॥१५॥

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