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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 14
    ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निर्हर्वीषि वा छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ते जा॑नत॒ स्वमो॒क्यं१॒॑ सं व॒त्सासो॒ न मा॒तृभि॑: । मि॒थो न॑सन्त जा॒मिभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । जा॒न॒त॒ । स्वम् । ओ॒क्य॑म् । सम् । व॒त्सासः॑ । न । मा॒तृऽभिः॑ । मि॒थः । न॒स॒न्त॒ । जा॒मिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते जानत स्वमोक्यं१ सं वत्सासो न मातृभि: । मिथो नसन्त जामिभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । जानत । स्वम् । ओक्यम् । सम् । वत्सासः । न । मातृऽभिः । मिथः । नसन्त । जामिऽभिः ॥ ८.७२.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (ते) वे उपासना करने वाले (स्वम् ओक्यम्) अपने निवास हेतु हितकर को (जानत) जानते हुए (जामिभिः मिथः) अपने सरीखे अन्य ज्ञाताओं सहित (नसन्त) निवास करते हैं ऐसे ही (न) जैसे (वत्सासः) छोटे बालक (मातृभिः) माता के साथ (सम्) रहते हैं या उनका संग नहीं छोड़ते। ['जामिः' शब्द यहाँ 'आ' धातु से निष्पन्न है]॥१४॥

    भावार्थ - उपासक यह जानते हैं कि उन्हें भलीभाँति वास देने वाला ज्ञानस्वरूप परमात्मा ही है; वे उसका साथ नहीं छोड़ना चाहते और उपासना से उसका सान्निध्य बनाये रखते हैं॥१४॥

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