ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 13
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हर्वीषि वा
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ सु॒ते सि॑ञ्चत॒ श्रियं॒ रोद॑स्योरभि॒श्रिय॑म् । र॒सा द॑धीत वृष॒भम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । सु॒ते । सि॒ञ्च॒त॒ । श्रिय॑म् । रोद॑स्योः । अ॒भि॒ऽश्रिय॑म् । र॒सा । द॒धी॒त॒ । वृ॒ष॒भम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सुते सिञ्चत श्रियं रोदस्योरभिश्रियम् । रसा दधीत वृषभम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । सुते । सिञ्चत । श्रियम् । रोदस्योः । अभिऽश्रियम् । रसा । दधीत । वृषभम् ॥ ८.७२.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(सुते) दिव्य आनन्द निष्पन्न होने पर (रोदस्योः) भू लोक व अन्तरिक्ष लोक--दोनों की (अभिश्रियम्) आश्रयभूत उत्तम वर्ग की अवस्था को (आ सिञ्चत) उस आनन्द रस से सींचो, शुद्ध करो। (रसा) आनन्द के उपभोक्ता उपासको! (वृषभम्) सेचन सामर्थ्य को (दधीत) धारो॥१३॥
भावार्थ - संसार के सकल प्राणी चाहते हैं कि वे सांसारिक स्थिति सुखपूर्ण व उत्तम वर्ग की पाएं--सभी का लक्ष्य है उत्तम स्थिति। जब उपासक अपने अन्तःकरण में दिव्य आनन्द रस भी पा लेता है तब यह स्थिति आनन्ददायक बन जाती है। परन्तु उपासक को इस मन्त्र में यह चेतावनी भी दी गई है कि रसावस्था को स्वयं तक सीमित न करो; इसकी वर्षा कर वृषभ बनो॥१३॥
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