ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 12
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हर्वीषि वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
गाव॒ उपा॑वताव॒तं म॒ही य॒ज्ञस्य॑ र॒प्सुदा॑ । उ॒भा कर्णा॑ हिर॒ण्यया॑ ॥
स्वर सहित पद पाठगावः॑ । उप॑ । अ॒व॒त॒ । अ॒व॒तम् । म॒ही इति॑ । य॒ज्ञस्य॑ । र॒प्सुदा॑ । उ॒भा । कर्णा॑ । हि॒र॒ण्यया॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गाव उपावतावतं मही यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥
स्वर रहित पद पाठगावः । उप । अवत । अवतम् । मही इति । यज्ञस्य । रप्सुदा । उभा । कर्णा । हिरण्यया ॥ ८.७२.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
पदार्थ -
ये जो (गावः) गायें, (उभा कर्णा) जिनकी दोनों कार्यसाधिका शक्तियाँ--ज्ञान व कर्म (हिरण्यया) अति प्रशस्त हैं; और जो (मही) आदरणीय हैं; (यज्ञस्य) यज्ञीय भावना को (रप्सुदाः) रूप प्रदान करती हैं, वे (अवतम्) कूप के तुल्य दिव्य-आनन्द-रस के स्रोत को (उप अवत) गहें॥१२॥
भावार्थ - भगवान् ने मानव को ज्ञान व कर्मेन्द्रिय--ये दो प्रकार के अति प्रशस्त साधन दिये हैं; इनसे मनुष्य विभिन्न रूपों में यज्ञीय भावना बढ़ाता है; परन्तु ये साधन दिव्य आनन्द के परम स्रोत से ही शक्ति पाते हैं--उपासक की विनय है कि ये सदैव उस परम स्रोत भगवान् से स्नेह करें॥१२॥
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