ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 11
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हर्वीषि वा
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒भ्यार॒मिदद्र॑यो॒ निषि॑क्तं॒ पुष्क॑रे॒ मधु॑ । अ॒व॒तस्य॑ वि॒सर्ज॑ने ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽआर॑म् । इत् । अद्र॑यः । निऽसि॑क्तम् । पुष्क॑रे । मधु॑ । अ॒व॒तस्य॑ । वि॒ऽसर्ज॑ने ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यारमिदद्रयो निषिक्तं पुष्करे मधु । अवतस्य विसर्जने ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽआरम् । इत् । अद्रयः । निऽसिक्तम् । पुष्करे । मधु । अवतस्य । विऽसर्जने ॥ ८.७२.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(अवतस्य) दिव्य आनन्द के स्रोत रूपी निम्न स्थान की निम्नता के (विसर्जने) हटने पर, इस खाई के पटने पर (पुष्करे) पुष्टिकर दिव्य आनन्द रस के भण्डार में (निषिक्तम्) भरे (मधु) मधुर आनन्द की (अभि) ओर (अद्रयः) मेघरूपी चित्तवृत्तियाँ (आरम्) जाया करती हैं॥११॥
भावार्थ - उपासक भक्ति की भावना का स्व अंश प्रदान कर जब कठिनता से उपास्य प्रभु को संतृप्त करने में सफल होता है तब उस दिव्यानन्द से लबालब भरे आनन्द-स्रोत से आनन्द का पान करने हेतु उसकी चित्तवृत्तियाँ उसकी ओर चल देती हैं॥११॥
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