ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 10
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हर्वीषि वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
सि॒ञ्चन्ति॒ नम॑साव॒तमु॒च्चाच॑क्रं॒ परि॑ज्मानम् । नी॒चीन॑बार॒मक्षि॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठसि॒ञ्चन्ति॑ । नम॑सा । अ॒व॒तम् । उ॒च्चाऽच॑क्रम् । परि॑ऽज्मानम् । नी॒चीन॑ऽबारम् । अक्षि॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सिञ्चन्ति नमसावतमुच्चाचक्रं परिज्मानम् । नीचीनबारमक्षितम् ॥
स्वर रहित पद पाठसिञ्चन्ति । नमसा । अवतम् । उच्चाऽचक्रम् । परिऽज्मानम् । नीचीनऽबारम् । अक्षितम् ॥ ८.७२.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
पदार्थ -
साधक (उच्चा चक्रम्) उच्चतम स्थिति में गतिशील, (परिज्मानम्) सर्व व्याप्त (नीचीनबारम्) नीचे की ओर प्रवेशद्वार वाले, (अक्षितम्) अक्षीण (अवतम्) जलाधार कूप के जैसे दिव्य आनन्द के आधारभूत प्रभु को (नमसा) अपनी भक्ति भावना से (सिञ्चन्ति) संतृप्त करते हैं॥१०॥
भावार्थ - प्रभु अक्षय दिव्य आनन्द का आधार तथा स्रोत है; किसी ऐसे कुएँ को सींचना कठिन है कि जिसका मुँह उलटा हो; झुक कर ही उसमें अंश डाला जा सकता है। दिव्य आनन्द के स्रोत भगवान् भी सुगमता से प्राप्त नहीं; उपासक भक्तिभाव से, नम्र होकर ही उनकी कृपा का पात्र बन सकता है॥१०॥
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