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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 9
    ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निर्हर्वीषि वा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    परि॑ त्रि॒धातु॑रध्व॒रं जू॒र्णिरे॑ति॒ नवी॑यसी । मध्वा॒ होता॑रो अञ्जते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । त्रि॒ऽधातुः॑ । अ॒ध्व॒रम् । जू॒र्णिः । ए॒ति॒ । नवी॑यसी । मध्वा॑ । होता॑रः । अ॒ञ्ज॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि त्रिधातुरध्वरं जूर्णिरेति नवीयसी । मध्वा होतारो अञ्जते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । त्रिऽधातुः । अध्वरम् । जूर्णिः । एति । नवीयसी । मध्वा । होतारः । अञ्जते ॥ ८.७२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (त्रिधातुः) सत्त्व, रज व तमस्–-तीनों गुणों के समन्वय से समन्वित, वा ज्ञान, कर्म तथा उपासना--तीनों से ध्रियमाण (जूर्णिः) वेगवान् कर्मिष्ठ उपासक (नवीयसी=नवीयस्या) नव्यतर सामर्थ्य से (अध्वरं परि एति) अहिंसनीय होता है; (होतारः) उसकी हृदयवेदी पर यज्ञकर्ता इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि होता (मध्वा) मधुर दिव्य आनन्द से (अञ्जते) परम प्रभु की शक्ति व्यक्त करते हैं॥९॥

    भावार्थ - ज्ञान, कर्म तथा उपासना द्वारा सत्त्व, रज व तमोगुण के आनुपातिक समन्वय से समन्वित साधक एक नई अद्भुत शक्ति पाता है, फिर वह मानो अहिंसनीय हो जाता है और सुसम्पादित दिव्य आनन्द से प्रभु के सामर्थ्य को प्रकटता है॥९॥

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