ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 5
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हर्वीषि वा
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
चर॑न्व॒त्सो रुश॑न्नि॒ह नि॑दा॒तारं॒ न वि॑न्दते । वेति॒ स्तोत॑व अ॒म्ब्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठचर॑न् । व॒त्सः । रुश॑न् । इ॒ह । नि॒ऽदा॒तार॑म् । न । वि॒न्द॒ते॒ । वेति॑ । स्तोत॑व्र् । अ॒म्ब्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
चरन्वत्सो रुशन्निह निदातारं न विन्दते । वेति स्तोतव अम्ब्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठचरन् । वत्सः । रुशन् । इह । निऽदातारम् । न । विन्दते । वेति । स्तोतव्र् । अम्ब्यम् ॥ ८.७२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
पदार्थ -
(चरन्) अन्तरिक्ष में विचरते, (रुशन्) दीप्ति से चमकते हुए, (वत्सः) सूर्य के चपल किरणसमूह अथवा विद्युत् को कोई भी (निदातारम्) निरोधक शक्ति (न) नहीं (विन्दते) पकड़ती; यह किरणजाल या (विद्युत् स्तोतवे) अपने गुण-वर्णन करने हेतु (अम्ब्यम्) स्तोता या गुणवर्णन करने वाले विद्वान् की (वेति) कामना करता है॥५॥
भावार्थ - अन्तरिक्ष में स्व दीप्ति के साथ व्याप्त विद्युत् रूप अग्नि के गुणों का अध्ययन कर उसका वर्णन करना तथा उससे लाभ उठाना विद्वानों का कर्त्तव्य है।॥५॥
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