ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 6
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हर्वीषि वा
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒तो न्व॑स्य॒ यन्म॒हदश्वा॑व॒द्योज॑नं बृ॒हद् । दा॒मा रथ॑स्य॒ ददृ॑शे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒तो इति॑ । नु । अ॒स्य॒ । यत् । म॒हत् । अश्व॑ऽवत् । योज॑नम् । बृ॒हत् । दा॒मा । रथ॑स्य । ददृ॑शे ॥
स्वर रहित मन्त्र
उतो न्वस्य यन्महदश्वावद्योजनं बृहद् । दामा रथस्य ददृशे ॥
स्वर रहित पद पाठउतो इति । नु । अस्य । यत् । महत् । अश्वऽवत् । योजनम् । बृहत् । दामा । रथस्य । ददृशे ॥ ८.७२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(उतो) और यह भी है कि (नु) शीघ्र ही (अस्य) इस आदित्य का (महत्=महान्) बृहत् व्यापक (अश्वावत्) रथ में जोड़े घोड़ों के संयोजन की भाँति सूर्य की रमणीय किरणों के समूह में बलशाली वेगादि गुणों का (योजनम्) संयोजन (रथस्य दामा) सूर्य रूपी रथ को चारों ओर घेरे विद्युत् पंक्ति के रूप में दीखता है॥६॥
भावार्थ - जैसे-जैसे आदित्य गतिमान् होता है, इसका आभा-वितान स्पष्ट दिखायी देने लग जाता है॥६॥
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