ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 87/ मन्त्र 6
ऋषिः - कृष्णो द्युम्नीको वा वासिष्ठः प्रियमेधो वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
व॒यं हि वां॒ हवा॑महे विप॒न्यवो॒ विप्रा॑सो॒ वाज॑सातये । ता व॒ल्गू द॒स्रा पु॑रु॒दंस॑सा धि॒याश्वि॑ना श्रु॒ष्ट्या ग॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । हि । वा॒म् । हवा॑महे । वि॒प॒न्यवः॑ । विप्रा॑सः । वाज॑ऽसातये । ता । व॒ल्गू इति॑ । द॒स्रा । पु॒रु॒ऽदंस॑सा । धि॒या । अश्वि॑ना । श्रु॒ष्टी । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं हि वां हवामहे विपन्यवो विप्रासो वाजसातये । ता वल्गू दस्रा पुरुदंससा धियाश्विना श्रुष्ट्या गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । हि । वाम् । हवामहे । विपन्यवः । विप्रासः । वाजऽसातये । ता । वल्गू इति । दस्रा । पुरुऽदंससा । धिया । अश्विना । श्रुष्टी । आ । गतम् ॥ ८.८७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 87; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
पदार्थ -
हे (अश्विना) बलिष्ठ इन्द्रिय वाले नर-नारियो! (विपन्यवः) विविध रूप में [ईश्वर के] गुणकीर्तन या ईश्वर स्तुति करने वाले (वयम्) हम (विप्रासः) मेधावीजन (वाजसातये) बल, विज्ञान, धन आदि की प्राप्ति हेतु (वाम्) तुम दोनों का (हवामहे) आह्वान करते हैं और कहते हैं कि (ता) वे तुम दोनों (वल्गू) शुभवाणी वाले (दस्रा) दुर्गुणों को नष्ट करते हुए (पुरुदंससा) विविध कर्मयुक्त हुए, (श्रुष्टि) शीघ्र ही (धिया) अपनी धारणवती बुद्धि सहित (आगतम्) अपने जीवनरूप यज्ञ में आओ और उसे आरम्भ करो॥६॥
भावार्थ - परमेश्वर के विभिन्न गुणों का गान करने वाले विद्वान् गृहस्थ स्त्री-पुरुषों को उपदेश दें कि वे स्व जीवनयज्ञ में शुभ बोलें, शुभ ही विविध कर्म करें और विवेकशक्ति-धारक बुद्धि कभी पृथक् न करें॥६॥ अष्टम मण्डल में सत्तासीवाँ सूक्त व दसवाँ वर्ग समाप्त॥
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