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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 88/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नोधा देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    योद्धा॑सि॒ क्रत्वा॒ शव॑सो॒त दं॒सना॒ विश्वा॑ जा॒ताभि म॒ज्मना॑ । आ त्वा॒यम॒र्क ऊ॒तये॑ ववर्तति॒ यं गोत॑मा॒ अजी॑जनन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    योद्धा॑ । अ॒सि॒ । क्रत्वा॑ । शव॑सा । उ॒त । दं॒सना॑ । विश्वा॑ । जा॒ता । अ॒भि । म॒ज्मना॑ । आ । त्वा॒ । अ॒यम् । अ॒र्कः । ऊ॒तये॑ । व॒व॒र्त॒ति॒ । यम् । गोत॑माः । अजी॑जनन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योद्धासि क्रत्वा शवसोत दंसना विश्वा जाताभि मज्मना । आ त्वायमर्क ऊतये ववर्तति यं गोतमा अजीजनन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    योद्धा । असि । क्रत्वा । शवसा । उत । दंसना । विश्वा । जाता । अभि । मज्मना । आ । त्वा । अयम् । अर्कः । ऊतये । ववर्तति । यम् । गोतमाः । अजीजनन् ॥ ८.८८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 88; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (यम्) जिस (त्वा) आप ऐश्वर्ययुक्त को (गोतमाः) शुभगुणों को धारण किये विद्वान् (अजीजनन्) अपने-अपने हृदय में प्रकट कर लेते हैं उसको (अयम्) यह (अर्कः) स्तोता (ऊतये) स्व रक्षा तथा सहायता--देखभाल के लिए (आ ववर्तति) पुनः-पुनः [गुण-कीर्तन द्वारा] अपने अनुकूल करता है; ऐसे हे प्रभु! आप (क्रत्वा) अपने कृत्यों व प्रज्ञान से (योद्धा) सर्व विजयी हैं; (उत) और (दंसना) स्व कर्मों से तथा (मज्मना) अपने भीतर ढक लेने वाले प्रभाव के द्वारा (सर्वा) सब (जाता) उत्पन्न पदार्थों तथा प्राणियों में (अभि) सर्वोपरि हैं॥४॥

    भावार्थ - प्रभु ही जगत् में सर्वोपरि है; उसके आश्रय से ही साधक को भी सब कुछ प्राप्त होता है; इसीलिये विद्वान् शुभगुण धारण कर हृदयदेश में उसे ही प्रत्यक्ष (अनुभव) करते हैं॥४॥

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