ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 88/ मन्त्र 5
प्र हि रि॑रि॒क्ष ओज॑सा दि॒वो अन्ते॑भ्य॒स्परि॑ । न त्वा॑ विव्याच॒ रज॑ इन्द्र॒ पार्थि॑व॒मनु॑ स्व॒धां व॑वक्षिथ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । हि । रि॒रि॒क्षे॒ । ओज॑सा । दि॒वः । अन्ते॑भ्यः । परि॑ । न । त्वा॒ । वि॒व्या॒च॒ । रजः॑ । इ॒न्द्र॒ । पार्थि॑वम् । अनु॑ । स्व॒धाम् । व॒व॒क्षि॒थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र हि रिरिक्ष ओजसा दिवो अन्तेभ्यस्परि । न त्वा विव्याच रज इन्द्र पार्थिवमनु स्वधां ववक्षिथ ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । हि । रिरिक्षे । ओजसा । दिवः । अन्तेभ्यः । परि । न । त्वा । विव्याच । रजः । इन्द्र । पार्थिवम् । अनु । स्वधाम् । ववक्षिथ ॥ ८.८८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 88; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
पदार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् प्रभो! (यः) जो आप (ओजसा) अपने आत्मगत प्रभाव द्वारा (दिवः) प्रकाशमय दूरस्थ लोक की (अन्तेभ्यः) अन्तिम सीमाओं से भी (परि) परे तक (हि) निश्चय ही (प्र रिरिक्षे) बहुत अधिक अतिरिक्तता से--पृथक् होकर--विद्यमान हैं; (त्वाम्) आप को (पार्थिवम्) पृथिवी क्षेत्र की (रजः) धूल [दोष] (विव्याच) नहीं व्यापती। ऐसे आप (स्वधाम्) अन्न, जल आदि पदार्थ तथा अपनी धारणाशक्ति को (ववक्षिथ) हमें प्राप्त कराएं॥५॥
भावार्थ - प्रभु की शक्ति तथा उसका प्रभाव दूर-दूर प्रकाशमय लोकों से भी दूर तक व्याप्त है; उस पर पार्थिव धूल तथा दोष कोई प्रभाव नहीं डाल पाते; वही प्रभु हमें सर्व प्रकार का निर्दोष ऐश्वर्य प्रदान करने में समर्थ है॥५॥
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