ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 88/ मन्त्र 6
नकि॒: परि॑ष्टिर्मघवन्म॒घस्य॑ ते॒ यद्दा॒शुषे॑ दश॒स्यसि॑ । अ॒स्माकं॑ बोध्यु॒चथ॑स्य चोदि॒ता मंहि॑ष्ठो॒ वाज॑सातये ॥
स्वर सहित पद पाठनकिः॑ । परि॑ष्टिः । म॒घ॒ऽव॒न् । म॒घस्य॑ । ते॒ । यत् । दा॒शुषे॑ । द॒श॒स्यसि॑ । अ॒स्माक॑म् । बो॒धि॒ । उ॒चथ॑स्य । चो॒दि॒ता । मंहि॑ष्ठः॑ । वाज॑ऽसातये ॥
स्वर रहित मन्त्र
नकि: परिष्टिर्मघवन्मघस्य ते यद्दाशुषे दशस्यसि । अस्माकं बोध्युचथस्य चोदिता मंहिष्ठो वाजसातये ॥
स्वर रहित पद पाठनकिः । परिष्टिः । मघऽवन् । मघस्य । ते । यत् । दाशुषे । दशस्यसि । अस्माकम् । बोधि । उचथस्य । चोदिता । मंहिष्ठः । वाजऽसातये ॥ ८.८८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 88; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
पदार्थ -
हे (मघवन्) ऐश्वर्य सम्पन्न! (यत्) जब (दाशुषे) दानशील को आप (दशस्यति) ऐश्वर्य देते हैं, तब, (ते) आप के (मघस्य) उस पूजनीय दान की (न किः परिष्टिः) कोई [हिंसा] नहीं होती, आप के दान में कोई बाधक नहीं। (मंहिष्ठः) पूजनीय तथा (चोदिता) सन्मार्ग प्रेरक आप (वाजसातये) अन्न आदि ऐश्वर्य के लाभार्थ (अस्माकम्) हमारे लिये (उचथस्य) उचित उपाय (बोधि) बताएं॥६॥
भावार्थ - प्रभु की उपासना श्रेष्ठ ऐश्वर्य के प्रदाता के रूप में शुद्ध अन्तःकरण से करनी चाहिये; इस प्रकार वह उचित प्रेरणा देगा कि जिसके अनुसार कार्य करने से आदरणीय शुभ ऐश्वर्य मिलेगा॥६॥ अष्टम मण्डल में अट्ठासीवाँ सूक्त व ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त।
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