ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 90/ मन्त्र 2
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं दा॒ता प्र॑थ॒मो राध॑साम॒स्यसि॑ स॒त्य ई॑शान॒कृत् । तु॒वि॒द्यु॒म्नस्य॒ युज्या वृ॑णीमहे पु॒त्रस्य॒ शव॑सो म॒हः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । दा॒ता । प्र॒थ॒मः । राध॑साम् । अ॒सि॒ । असि॑ । स॒त्यः । ई॒शा॒न॒ऽकृत् । तु॒वि॒ऽद्यु॒म्नस्य॑ । युज्या॑ । आ । वृ॒णी॒म॒हे॒ । पु॒त्रस्य॑ । शव॑सः । म॒हः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं दाता प्रथमो राधसामस्यसि सत्य ईशानकृत् । तुविद्युम्नस्य युज्या वृणीमहे पुत्रस्य शवसो महः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । दाता । प्रथमः । राधसाम् । असि । असि । सत्यः । ईशानऽकृत् । तुविऽद्युम्नस्य । युज्या । आ । वृणीमहे । पुत्रस्य । शवसः । महः ॥ ८.९०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 90; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
पदार्थ -
हे प्रभु! (त्वम्) आप ही (राधसाम्) सिद्धिकारक ऐश्वर्यों--ज्ञान, धन, आदि--के (प्रथमः) सर्वप्रथम (दाता) प्रदान करने वाले हैं। आप ही (सत्यः) सत्य (ईषानकृत्) उस पर दूसरों का प्रभुत्व स्थापित करानेवाले [ऐश्वर्य देनेवाले] हैं। अतएव हम (तुविद्युम्नस्य) बहुत धन एवं ऐश्वर्यवान्, (शवसः पुत्रस्य) अति बलवान् (महः) महान् आप से (युज्या) युक्त या आपके योग्य वस्तुओं की (वृणीमहे) याचना करते हैं॥२॥
भावार्थ - सृष्टि की रचना करने वाला भगवान् ही प्रथम दाता है--वास्तविक स्वामी भी वही है; अतएव वही किसी को कुछ देने का अधिकारी है। उससे ही यश दिलाने वाला ऐश्वर्य, बल इत्यादि प्राप्त करने की इच्छा करे; वह भी वही जो उसके योग्य हो; प्रभु के गुणों के अनुरूप हो॥२॥
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