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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 33
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वं हि वृ॑त्रहन्नेषां पा॒ता सोमा॑ना॒मसि॑ । उप॑ नो॒ हरि॑भिः सु॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । ए॒षा॒म् । पा॒ता । सोमा॑नाम् । असि॑ । उप॑ । नः॒ । हरि॑ऽभिः । सु॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं हि वृत्रहन्नेषां पाता सोमानामसि । उप नो हरिभिः सुतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । हि । वृत्रऽहन् । एषाम् । पाता । सोमानाम् । असि । उप । नः । हरिऽभिः । सुतम् ॥ ८.९३.३३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 33
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    हे (वृत्रहन्) अज्ञान के तम आदि अवरोधों को दूर करने वाले समर्थ मेरे आत्मा! (त्वं हि) निश्चय तू ही (एषाम्) इस सृष्टि में प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले (सोमानाम्) सुखसाधक पदार्थों का (पाता असि) इनके ज्ञान से इनका संरक्षक है। [अपने इस गुण को बनाए रखने हेतु] (हरिभिः) जीवनयापन समर्थ इन्द्रियों द्वारा (सुतम्) निष्पादित ज्ञानरस (उप याहि) प्राप्त कर॥३३॥

    भावार्थ - जीवनचक्र में ज्ञान व अन्य नानाविध ऐश्वर्यों की प्राप्ति के मार्ग में विशेषतया अज्ञानजन्य रुकावटें आती रहती हैं। इन्हें रोकने का उपाय यह है कि साधक अपनी दोनों प्रकार की इन्द्रियशक्तियों को प्रबल बनाये और उनसे ज्ञानरस का निरन्तर पान करे॥३३॥

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