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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 34
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्र ऋभवश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्र॑ इ॒षे द॑दातु न ऋभु॒क्षण॑मृ॒भुं र॒यिम् । वा॒जी द॑दातु वा॒जिन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । इ॒षे । द॒दा॒तु॒ । नः॒ । ऋ॒भु॒क्षण॑म् । ऋ॒भुम् । र॒यिम् । वा॒जी । द॒दा॒तु॒ । वा॒जिन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र इषे ददातु न ऋभुक्षणमृभुं रयिम् । वाजी ददातु वाजिनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । इषे । ददातु । नः । ऋभुक्षणम् । ऋभुम् । रयिम् । वाजी । ददातु । वाजिनम् ॥ ८.९३.३४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 34
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् प्रभु (इषे) हमारी कामनाओं की पूर्ति हेतु (नः) हमें (ऋभुक्षणम्= उरुक्षयणम्) व्यापक आधार प्रदान करनेवाले, (ऋभुम्) सुगमता से प्रयुक्त कर पाने योग्य (रयिम्) सुख साधनों--धन, विद्या, बल, पुत्र आदि को (ददातु) प्रदान करे। (वाजी) ज्ञान, बल, धन आदि का स्वामी भगवान् हमें (वाजिनम्) ज्ञान-बल-धन आदि से युक्त जनसमाज (ददातु) प्रदान करे॥३४॥

    भावार्थ - स्वयं ऐश्वर्यवान् प्रभु ही हमारी कामनाएं पूर्ण कर सकते हैं अर्थात् उनके गुण-गान करते हुए भक्त उन गुणों को धारने का यत्न कर स्वयं ऐश्वर्यवान् हो सकते हैं। इस भाँति प्रभु सारे समाज का ही है॥३४॥ अष्टम मण्डल में तिरानवेवाँ सूक्त व सताईसवाँ वर्ग समाप्त॥

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