ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 5
इन्द्र॒ यस्ते॒ नवी॑यसीं॒ गिरं॑ म॒न्द्रामजी॑जनत् । चि॒कि॒त्विन्म॑नसं॒ धियं॑ प्र॒त्नामृ॒तस्य॑ पि॒प्युषी॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । यः । ते॒ । नवी॑यसीम् । गिर॑म् । म॒न्द्राम् । अजी॑जनत् । चि॒कि॒त्वित्ऽम॑नसम् । धिय॑म् । प्र॒त्नाम् । ऋ॒तस्य॑ । पि॒प्युषी॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र यस्ते नवीयसीं गिरं मन्द्रामजीजनत् । चिकित्विन्मनसं धियं प्रत्नामृतस्य पिप्युषीम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । यः । ते । नवीयसीम् । गिरम् । मन्द्राम् । अजीजनत् । चिकित्वित्ऽमनसम् । धियम् । प्रत्नाम् । ऋतस्य । पिप्युषीम् ॥ ८.९५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
पदार्थ -
हे (इन्द्र) प्रभु! (यः) जो उपासक (ते) आपकी प्राप्ति हेतु (नवीयसीम्) नित नई (मन्द्राम्) हर्षजनक (गिरम्) गुणवन्दना को (अजीजनत्) प्रकाशित करता है; उस उपासक की (धियम्) बुद्धि को आप (चिकित्विन्मनसम्) मनन या आन्तरिक विचारधारा की पहचान कराने वाले (प्रत्नाम्) पुरातन (ऋतस्य पिप्युषीम्) सत्यनियम के ज्ञान से परिपूरित कर देते हैं। ५॥
भावार्थ - प्रतिदिन प्रभु का गुणगान करने वाला उपासक सृष्टिकर्ता के उन सत्य नियमों को समझ जाता है कि जिनसे यह सृष्टि रची गयी है॥५॥
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