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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 4
    ऋषिः - तिरश्चीः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    श्रु॒धी हवं॑ तिर॒श्च्या इन्द्र॒ यस्त्वा॑ सप॒र्यति॑ । सु॒वीर्य॑स्य॒ गोम॑तो रा॒यस्पू॑र्धि म॒हाँ अ॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रु॒धि । हव॑म् । ति॒र॒श्च्याः । इन्द्र॑ । यः । त्वा॒ । स॒प॒र्यति॑ । सु॒ऽवीर्य॑स्य । गोऽम॑तः । रा॒यः । पू॒र्धि॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रुधी हवं तिरश्च्या इन्द्र यस्त्वा सपर्यति । सुवीर्यस्य गोमतो रायस्पूर्धि महाँ असि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रुधि । हवम् । तिरश्च्याः । इन्द्र । यः । त्वा । सपर्यति । सुऽवीर्यस्य । गोऽमतः । रायः । पूर्धि । महान् । असि ॥ ८.९५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    साधक पुनः प्रभु से याचना करता है— हे (इन्द्र) प्रभु! (यः) जो साधक (तिरश्च्या) अन्तर्ध्यान की क्रिया से (त्वा) आपका (सपर्यति) समागम करता है, उस (सुवीर्यस्य) उत्तम बल सम्पन्न, (गोमतः) इन्द्रियजयी, संयमी साधक की (हवम्) पुकार को (श्रुधि) सुनो और (रायः) उसे ऐश्वर्य से (पूर्धि) पूर्ण करो; महान् (असि) आप तो महान् हैं॥४॥

    भावार्थ - अन्तर्ध्यान से प्रभु का समागम होता है; सतत स्मरण से ही यह परमात्मा पुकार सुनता है अर्थात् अन्तर्ध्यान द्वारा ही हम प्रभु के गुणों को ग्रहण करने में समर्थ हो उसके अच्छे एवं सतत सेवक बन पाते हैं॥४॥

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