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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 9
    ऋषिः - तिरश्चीः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इन्द्र॑ शु॒द्धो हि नो॑ र॒यिं शु॒द्धो रत्ना॑नि दा॒शुषे॑ । शु॒द्धो वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे शु॒द्धो वाजं॑ सिषाससि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । शु॒द्धः । हि । नः॒ । र॒यिम् । शु॒द्धः । रत्ना॑नि । दा॒शुषे॑ । शु॒द्धः । वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒से॒ । शु॒द्धः । वाज॑म् । सि॒सा॒स॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र शुद्धो हि नो रयिं शुद्धो रत्नानि दाशुषे । शुद्धो वृत्राणि जिघ्नसे शुद्धो वाजं सिषाससि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । शुद्धः । हि । नः । रयिम् । शुद्धः । रत्नानि । दाशुषे । शुद्धः । वृत्राणि । जिघ्नसे । शुद्धः । वाजम् । सिसाससि ॥ ८.९५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    हे (इन्द्र) प्रभो! आप (शुद्धः हि) निश्चय ही परमपावन, (नः रयिम्) हमें ऐश्वर्य एवं (शुद्धः) परमपवित्र रूप में ही (दाशुषे) समर्पक भक्त को (रत्नानि) विविध रमणीय पदार्थ एवं (शुद्धः) परम पवित्र रूप में ही (वाजम्) अन्न, बल आदि (सिषाससि) प्रदान करना चाहते हैं। (शुद्धः) आप शुद्ध हैं और (वृत्राणि) विघ्नों को (जिघ्नसे) दूर करना चाहते हैं॥९॥

    भावार्थ - प्रभु ही मानव को सभी कुछ देता है--अन्न, बल, धन आदि जो कुछ वह हमें प्रदान करता है, वह सब हम तभी पाते हैं जबकि उसके शुद्ध रूप को भलीभाँति अपने हृदयपटल पर अंकित कर प्रेरणा से प्रेरित कर्मानुसार अपना व्यवहार बनाएं॥९॥ अष्टम मण्डल में पचापिच्यानवेवाँ सूक्त व इकतीसवाँ वर्ग समाप्त।

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