ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 8
इन्द्र॑ शु॒द्धो न॒ आ ग॑हि शु॒द्धः शु॒द्धाभि॑रू॒तिभि॑: । शु॒द्धो र॒यिं नि धा॑रय शु॒द्धो म॑मद्धि सो॒म्यः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । शु॒द्धः । नः॒ । आ । ग॒हि॒ । शु॒द्धः । शु॒द्धाभिः॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । शु॒द्धः । र॒यिम् । नि । धा॒र॒य॒ । शु॒द्धः । म॒म॒द्धि॒ । सो॒म्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र शुद्धो न आ गहि शुद्धः शुद्धाभिरूतिभि: । शुद्धो रयिं नि धारय शुद्धो ममद्धि सोम्यः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । शुद्धः । नः । आ । गहि । शुद्धः । शुद्धाभिः । ऊतिऽभिः । शुद्धः । रयिम् । नि । धारय । शुद्धः । ममद्धि । सोम्यः ॥ ८.९५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
पदार्थ -
हे (इन्द्र) प्रभो! (शुद्ध) आप शुद्ध हैं (नः) हमें (आ, गहि) आ कर सहारा दें। (शुद्धः) पवित्र आप (शुद्धाभिः) अपनी निर्दोष (ऊतिभिः) रक्षण आदि क्रियाओं से हमारा हाथ पकड़ें। (शुद्धः) शुद्ध आप ही (रयिम्) ऐश्वर्य को (निधारय) धारण कराएं। हे (सोम्यः) सोमगुणयुक्त, मेरे आत्मन्! (शुद्धः) अविद्यादि दोषों से रहित होकर ही तू (ममद्धि) आनन्दित हो॥८॥
भावार्थ - परम पावन प्रभु का ही आश्रय ग्रहण करना उचित है; उसकी प्रेरणा से हम जो कार्य करेंगे, वे ही शुद्ध होंगे और इस भाँति हम शुद्ध होकर ही शुद्ध हर्ष पाने की इच्छा करें॥८॥
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