ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 7
एतो॒ न्विन्द्रं॒ स्तवा॑म शु॒द्धं शु॒द्धेन॒ साम्ना॑ । शु॒द्धैरु॒क्थैर्वा॑वृ॒ध्वांसं॑ शु॒द्ध आ॒शीर्वा॑न्ममत्तु ॥
स्वर सहित पद पाठएतो॒ इति॑ । नु । इन्द्र॑म् । स्तवा॑म । शु॒द्धम् । शु॒द्धेन॑ । साम्ना॑ । शु॒द्धैः । उ॒क्थैः । व॒वृ॒ध्वांस॑म् । शु॒द्धः । आ॒शीःऽवा॑न् । म॒म॒त्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतो न्विन्द्रं स्तवाम शुद्धं शुद्धेन साम्ना । शुद्धैरुक्थैर्वावृध्वांसं शुद्ध आशीर्वान्ममत्तु ॥
स्वर रहित पद पाठएतो इति । नु । इन्द्रम् । स्तवाम । शुद्धम् । शुद्धेन । साम्ना । शुद्धैः । उक्थैः । ववृध्वांसम् । शुद्धः । आशीःऽवान् । ममत्तु ॥ ८.९५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(आ एत उ नु) आओ उपासको! हम उपासक (शुद्धम्) शुद्ध इन्द्रप्रभु की शुद्धेन (साम्ना) शुद्ध सामगायन से (स्तवाम) वन्दना करें। (शुद्धैः) शुद्ध (उक्थैः) स्तुति वचनों से (वावृध्वांसम्) वर्धनशील को (शुद्धः आशीर्वान्) शुद्ध कामनायुक्त उपासक (ममत्तु) हर्ष प्रदान करे॥७॥
भावार्थ - सदा पावन प्रभु की उपासना अविद्यादि दोषरहित शुद्ध हृदय से की जानी सम्भव है। शुद्ध स्तुति हेतु वचन भी, सामवेदादि वेदवचन--शुद्ध वचन ही हों। परमेश्वर के गुणों की वन्दना, जब वेद के शुद्ध वचनों में होगी, तभी उसका शुद्ध स्वरूप वन्दना करने वाले के शुद्ध हृदय पर अंकित होगा॥७॥
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