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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 7
    ऋषिः - तिरश्चीः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    एतो॒ न्विन्द्रं॒ स्तवा॑म शु॒द्धं शु॒द्धेन॒ साम्ना॑ । शु॒द्धैरु॒क्थैर्वा॑वृ॒ध्वांसं॑ शु॒द्ध आ॒शीर्वा॑न्ममत्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एतो॒ इति॑ । नु । इन्द्र॑म् । स्तवा॑म । शु॒द्धम् । शु॒द्धेन॑ । साम्ना॑ । शु॒द्धैः । उ॒क्थैः । व॒वृ॒ध्वांस॑म् । शु॒द्धः । आ॒शीःऽवा॑न् । म॒म॒त्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतो न्विन्द्रं स्तवाम शुद्धं शुद्धेन साम्ना । शुद्धैरुक्थैर्वावृध्वांसं शुद्ध आशीर्वान्ममत्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतो इति । नु । इन्द्रम् । स्तवाम । शुद्धम् । शुद्धेन । साम्ना । शुद्धैः । उक्थैः । ववृध्वांसम् । शुद्धः । आशीःऽवान् । ममत्तु ॥ ८.९५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Come, friends, and, with happy chant of pure holy Sama songs, adore Indra, pure and bright spirit and power of the world, who feels pleased and exalted by honest unsullied songs of adoration. Let the supplicant with a pure heart please and win the favour of Indra and rejoice.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पवित्र परमेश्वराची उपासना सदैव अविद्या इत्यादी दोषरहित शुद्ध हृदयाद्वारे केली जाऊ शकते. शुद्ध स्तुतीसाठी वचन, सामवेद वचनच, शुद्ध वचनच असले पाहिजेत. परमेश्वराच्या गुणांची वंदना जेव्हा वेदाच्या शुद्ध वचनांद्वारे केली जाईल तेव्हाच त्याचे शुद्ध स्वरूपच वंदना करणाऱ्याच्या शुद्ध हृदयावर अंकित होईल. ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (आ एत उ नु) आओ उपासको! हम उपासक (शुद्धम्) शुद्ध इन्द्रप्रभु की शुद्धेन (साम्ना) शुद्ध सामगायन से (स्तवाम) वन्दना करें। (शुद्धैः) शुद्ध (उक्थैः) स्तुति वचनों से (वावृध्वांसम्) वर्धनशील को (शुद्धः आशीर्वान्) शुद्ध कामनायुक्त उपासक (ममत्तु) हर्ष प्रदान करे॥७॥

    भावार्थ

    सदा पावन प्रभु की उपासना अविद्यादि दोषरहित शुद्ध हृदय से की जानी सम्भव है। शुद्ध स्तुति हेतु वचन भी, सामवेदादि वेदवचन--शुद्ध वचन ही हों। परमेश्वर के गुणों की वन्दना, जब वेद के शुद्ध वचनों में होगी, तभी उसका शुद्ध स्वरूप वन्दना करने वाले के शुद्ध हृदय पर अंकित होगा॥७॥

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    विषय

    परमेश्वर के गुणों का स्तवन। पक्षान्तर में राजा के कर्तव्य।

    भावार्थ

    ( एतो नु ) हे विद्वान् जनो ! आओ । हम लोग ( शुद्धेन ) शुद्ध, ( साम्ना ) सामवेद गायन द्वारा ( शुद्धं ) शुद्ध ( इन्द्रम् ) परमेश्वर की ( स्तवाम ) स्तुति करें। (शुद्धैः उक्थैः वावृध्वांसं ) शुद्ध वचनों से बढ़ने वाले उसको ( शुद्धः आशीर्वान् ) शुद्ध कामना वाला, शुद्ध हृदय होकर ही ( ममत्तु ) प्रसन्न करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्ची ऋषिः॥ इन्द्रा देवता॥ छन्द:—१—४, ६, ७ विराडनुष्टुप्। ५, ९ अनुष्टुप्। ८ निचृदनुष्टुप्॥

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    विषय

    'शुद्ध आशीर्वान्' स्तोता

    पदार्थ

    [१] (एत उ) = आओ ही, हे मित्रो ! (नु) = अब (शुद्धं इन्द्रम्) = उस अपापविद्ध- पवित्र परमैश्वर्यशाली प्रभु को (शुद्धेन साम्ना) = निर्दोष, पवित्र हृदय से उच्चरित साम से [स्तोत्र से] (स्तवाम) = स्तुत करें। [२] (शुद्धैः उक्थैः) = निर्दोष पवित्र हृदय से उच्चरित स्तोत्रों से (वावृध्वांसम्) = वृद्धि को प्राप्त होनेवाले उस प्रभु को (शुद्धः) = शुद्ध जीवनवाला (आशीर्वान्) = प्रभु प्राप्ति की कामनावाला यह उपासक (ममत्तु) = आनन्दित करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मिलकर हृदय से प्रभु का उपासन करें। स्तवन से हमारे में प्रभु के प्रकाश का वर्धन होता है। हम शुद्ध जीवनवाले व प्रभु प्राप्ति की कामनावाले बनकर प्रभु को आराधित कर पाते हैं।

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