ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 6
तमु॑ ष्टवाम॒ यं गिर॒ इन्द्र॑मु॒क्थानि॑ वावृ॒धुः । पु॒रूण्य॑स्य॒ पौंस्या॒ सिषा॑सन्तो वनामहे ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊँ॒ इति॑ । स्त॒वा॒म॒ । यम् । गिरः॑ । इन्द्र॑म् । उ॒क्थानि॑ । व॒वृ॒धुः । पु॒रूणि॑ । अ॒स्य॒ । पौंस्या॑ । सिसा॑सन्तः । व॒ना॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु ष्टवाम यं गिर इन्द्रमुक्थानि वावृधुः । पुरूण्यस्य पौंस्या सिषासन्तो वनामहे ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ऊँ इति । स्तवाम । यम् । गिरः । इन्द्रम् । उक्थानि । ववृधुः । पुरूणि । अस्य । पौंस्या । सिसासन्तः । वनामहे ॥ ८.९५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
We adore and worship Indra whom hymns and songs of adoration exalt, and we pray to him for the gift of many forms of strength, honour and excellence.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराच्या गुणांची निरंतर वंदना करण्याने त्याच्याविषयी उपासकाचा उत्साह वाढतो. हीच परमेश्वर भक्तीची वृद्धी आहे. आमचे सुकर्म परमेश्वराविषयी आमची आस्था वाढवितात. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हम उपासक (तम् उ इन्द्रम्) उस प्रभु की ही (स्तुवाम) गुण वन्दना करें (यम्) जिसको (गिरः) वेदवाणी से सुसंस्कृत हमारी वाणियाँ (उक्थानि) एवं हमारे प्रशंसनीय कर्म (वावृधुः) बढ़ाते रहते हैं। फिर हम (अस्य) इस परमेश्वर के (पुरूणि) बहुत से (पौंस्या) बल ऐश्वर्य को (सिषासन्तः) प्राप्त करना चाहते हुए (वनामहे) उसका भजन करते हैं॥६॥
भावार्थ
प्रभु के गुणों की निरन्तर वन्दना से उसके प्रति उपासक नया उत्साह पाता है--यही परमेश्वर का विस्तार है। हमारे सुकर्म परमेश्वर के प्रति हमारी आस्था को सुदृढ़ तथा विस्तृत करते हैं॥६॥
विषय
परमेश्वर के गुणों का स्तवन। पक्षान्तर में राजा के कर्तव्य।
भावार्थ
( यं ) जिस ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्य के स्वामी को ( गिरः ववृधुः ) सब वाणियां बढ़ाती हैं हम भी ( तम् उ स्तवाम ) उसकी स्तुति करें। ( अस्य पुरूणि ) उसके बहुत से ( पौंस्या ) बलों, ऐश्वर्यों को (सिसा-सन्तः ) प्राप्त करना चाहते हुए ( वनामहे ) हम उसका भजन करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्ची ऋषिः॥ इन्द्रा देवता॥ छन्द:—१—४, ६, ७ विराडनुष्टुप्। ५, ९ अनुष्टुप्। ८ निचृदनुष्टुप्॥
विषय
प्रभु-भजन व प्रभु पौंस्य प्राप्ति
पदार्थ
[१] (तम्) = उस (इन्द्रम्) = परमेश्वर्यशाली प्रभु का (उ) = ही हम (स्तवाम) = स्तवन करते हैं। (यम्) = जिस प्रभु को (गिर:) = सब ज्ञान की वाणियाँ तथा (उक्थानि) = स्तुति - वचन (वावृधुः) = बढ़ाते हैं। जितना- जितना हम इन ज्ञान की वाणियों व स्तुतिवचनों को उच्चरित करते हैं, उतना उतना ही प्रभु को अपने में बढ़ा पाते हैं। प्रभु की दिव्यता का धारण ही प्रभु का वर्धन है। [२] (अस्य) = इस प्रभु का (पौंस्या) = बल (पुरूणि) = बहुत अधिक व पालक व पूरक हैं। इन बलों को (सिषासन्तः) = प्राप्त करने की कामनावाले होते हुए हम (वनामहे) = प्रभु का सम्भजन करते हैं। प्रभु सम्भजन हमें प्रभु के इन बलों में भागी बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञान की वाणियों व स्तुति वचनों से हम प्रभु का सम्भजन करते हैं। यह सम्भजन हमें प्रभु के बलों में भागी बनाता है।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal