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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
    ऋषिः - तिरश्चीः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ त्वा॑ शु॒क्रा अ॑चुच्यवुः सु॒तास॑ इन्द्र गिर्वणः । पिबा॒ त्व१॒॑स्यान्ध॑स॒ इन्द्र॒ विश्वा॑सु ते हि॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । त्वा॒ । शु॒क्राः । अ॒चु॒च्य॒वुः॒ । सु॒तासः॑ । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । पिब॑ । तु । अ॒स्य । अन्ध॑सः । इन्द्र॑ । विश्वा॑सु । ते॒ । हि॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा शुक्रा अचुच्यवुः सुतास इन्द्र गिर्वणः । पिबा त्व१स्यान्धस इन्द्र विश्वासु ते हितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । शुक्राः । अचुच्यवुः । सुतासः । इन्द्र । गिर्वणः । पिब । तु । अस्य । अन्धसः । इन्द्र । विश्वासु । ते । हितम् ॥ ८.९५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord ruler of the world, adorable soul, let these somas of transparent knowledge and awareness of crystalline purity distilled from life reach in homage to you. Accept these, enjoy, protect and promote these rolling round in space for you as food for life and soul.$(This mantra can also be interpreted as a divine blessing to the human soul in response to its karmic homage presented in the previous mantra. When a devotee offers homage of prasada in the lord’s temple, the lord returns it with blessings for the presenter.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रभूच्या सृष्टीचे ठीक ठीक ज्ञान ग्रहण करणेच एक प्रकारे सोमचे (पदार्थ-विज्ञान) संपादन आहे. हे सर्व इन्द्रियांद्वारे आत्म्याच्या हितासाठी केले जाते. प्रत्येक जीवाला हा प्राप्तव्य रस शीघ्रातिशीर्घ ग्रहण केला पाहिजे. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (गिर्वणः) प्रशंसनीय आत्मन्! (सुतासः) सुसम्पादित पदार्थ विज्ञान (शुक्राः) जो निर्दोष होने से अतीव शोभित हैं वे (त्वा) तुझ मेरे आत्मा की ओर (आ अचुच्यवुः) चारों ओर से क्रमशः प्राप्त हुए हैं। हे (इन्द्र) ऐश्वर्य प्राप्ति के अभिलाषी मेरे आत्मन्! (विश्वासु) सभी ओर (ते हितम्) तेरे लिये प्रभु द्वारा स्थापित (अस्य) इस (अन्धसः) पदार्थविज्ञान रूपी रस को (नु) शीघ्र ही (पिब) पी॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा की सृष्टि का सम्यक् ज्ञान ग्रहण करना एक प्रकार से सोम सम्पादन है; इन्द्रियों के द्वारा यह सब आत्मा के हितार्थ किया जाता है। हर जीव इस प्राप्तव्य रस को शीघ्रातिशीघ्र ग्रहण करे॥२॥

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    विषय

    परमेश्वर के गुणों का स्तवन। पक्षान्तर में राजा के कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( गिर्वणः ) वाणी द्वारा स्तुति करने योग्य ! हे हमारी वाणियों को हर्षपूर्वक स्वीकार करनेवाले ! ( शुक्राः सुतासः ) शुद्ध, कान्तियुक्त, तेजस्वी, पदाभिषिक्त जन ( त्वा आ अचुच्यवुः ) तुझे सब ओर से प्राप्त हों। हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ( ते ) तेरे योग्य ( विश्वासु हितम् ) समस्त प्रजाओं में नियत भाग है। तू ( अस्य अन्धसः ) उस खाने योग्य पदार्थ का ( पिबतु ) उपभोग कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्ची ऋषिः॥ इन्द्रा देवता॥ छन्द:—१—४, ६, ७ विराडनुष्टुप्। ५, ९ अनुष्टुप्। ८ निचृदनुष्टुप्॥

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    विषय

    सोमरक्षण व प्रभु प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों से सम्भजनीय (इन्दु) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (सुतासः) = शरीर में उत्पन्न हुए हुए (शुक्राः) = ये शक्तिकण (त्वा) = आपको (आ अचुच्यवुः) = हमारे लिये प्राप्त करानेवाले हों। [२] हे (इन्द्र) = शत्रुओं के विद्रावक प्रभो ! (अस्य अन्धसः) = इस सोम का (पिबा तु) = आप ही पान करेंगे। आपकी उपासना ही वासना-विनाश द्वारा इसके रक्षण का साधन बनती है। (विश्वासु) = सब प्रजाओं में (ते हितम्) = आपके द्वारा ही इसकी स्थापना हुई है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही सब शरीरों में सोम की स्थापना करते हैं। प्रभु की उपासना द्वारा ही इसका रक्षण होता है और इसके रक्षण से ही प्रभु की प्राप्ति होती है।

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