ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 1
या इ॑न्द्र॒ भुज॒ आभ॑र॒: स्व॑र्वाँ॒ असु॑रेभ्यः । स्तो॒तार॒मिन्म॑घवन्नस्य वर्धय॒ ये च॒ त्वे वृ॒क्तब॑र्हिषः ॥
स्वर सहित पद पाठयाः । इ॒न्द्र॒ । भुजः॑ । आ । अभ॑रः । स्वः॑ऽवान् । असु॑रेभ्यः । स्तो॒तार॑म् । इत् । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒स्य॒ । व॒र्ध॒य॒ । ये । च॒ । त्वे इति॑ । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः ॥
स्वर रहित मन्त्र
या इन्द्र भुज आभर: स्वर्वाँ असुरेभ्यः । स्तोतारमिन्मघवन्नस्य वर्धय ये च त्वे वृक्तबर्हिषः ॥
स्वर रहित पद पाठयाः । इन्द्र । भुजः । आ । अभरः । स्वःऽवान् । असुरेभ्यः । स्तोतारम् । इत् । मघऽवन् । अस्य । वर्धय । ये । च । त्वे इति । वृक्तऽबर्हिषः ॥ ८.९७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
पदार्थ -
हे (इन्द्र) प्रभो! (स्वर्वान्) बहुसुख सम्पन्न आप (असुरेभ्यः) प्राणद पिण्डों से (याः) जिन (भुजः) भोग्यों को (आभरः) लाकर देते हैं--(अस्य) उस भोग्य समूह के (स्तोतारम् इत्) प्रशंसक को ही, हे (मघवन्) सम्मानित ऐश्वर्य के स्वामी! आप (वर्धय) बढ़ाइये (च) और उन लोगों को बढ़ाइये (ये) जो (त्वे) आपके हेतु (वृक्तबर्हिषः) स्व शुद्ध अन्तःकरण का आसन फैलाए हैं॥१॥
भावार्थ - यों तो प्रभु रचित सारे भोग्य पदार्थ सदैव विद्यमान रहते ही हैं, परन्तु वस्तुतः वे उन्हें ही आमोद देते हैं जो उनके गुणों को जान उनका सदुपयोग करें और उनके दाता प्रभु को सदैव अपने अन्तःकरण में प्रत्यक्ष देखें॥१॥
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