ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 2
यमि॑न्द्र दधि॒षे त्वमश्वं॒ गां भा॒गमव्य॑यम् । यज॑माने सुन्व॒ति दक्षि॑णावति॒ तस्मि॒न्तं धे॑हि॒ मा प॒णौ ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । इ॒न्द्र॒ । द॒धि॒षे । त्वम् । अश्व॑म् । गाम् । भा॒गम् । अव्य॑यम् । यज॑माने । सु॒न्व॒ति । दक्षि॑णाऽवति । तस्मि॑न् । तम् । धे॒हि॒ । मा । प॒णौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यमिन्द्र दधिषे त्वमश्वं गां भागमव्ययम् । यजमाने सुन्वति दक्षिणावति तस्मिन्तं धेहि मा पणौ ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । इन्द्र । दधिषे । त्वम् । अश्वम् । गाम् । भागम् । अव्ययम् । यजमाने । सुन्वति । दक्षिणाऽवति । तस्मिन् । तम् । धेहि । मा । पणौ ॥ ८.९७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
पदार्थ -
हे (इन्द्र) प्रभु! (त्वम्) आप (यम्) जिस (गाम्, अश्वम्, अव्ययं भागम्) गाय, अश्व आदि से उपलक्षित ऐश्वर्य के अविनश्वर विस्तीर्यमाण अंश को वितरण के लिये (दधिषे) धारते हैं (तम्) उस अंश को (तस्मिन्) उन प्रसिद्ध (सुन्वति) पदार्थों के बोध रूप सार का निष्पादन करनेवाले, और साथ ही (दक्षिणावति) दानशील मानव में (धेहि) स्थापित कर, (मा पणौ) क्रय-विक्रय करने वाले कंजूस में स्थापित न कीजिये॥२॥
भावार्थ - जो विद्वान् परमात्मा द्वारा रचित पदार्थों के गुणावगुणों को जान उस बोधरूप सार को दूसरों में बाँटते हैं; वे ही वस्तुतः प्रभु प्रदत्त ऐश्वर्य में वास्तविक भागीदार हैं; ज्ञान का आदान-प्रदान करनेवाले पदार्थों के वास्तविक भोग से वंचित रहते हैं॥२॥
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