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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
    ऋषिः - रेभः काश्यपः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    य इ॑न्द्र॒ सस्त्य॑व्र॒तो॑ऽनु॒ष्वाप॒मदे॑वयुः । स्वैः ष एवै॑र्मुमुर॒त्पोष्यं॑ र॒यिं स॑नु॒तर्धे॑हि॒ तं तत॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । इ॒न्द्र॒ । सस्ति॑ । अ॒व्र॒तः । अ॒नु॒ऽस्वाप॑म् । अदे॑वऽयुः । स्वैः । सः । एवैः॑ । मु॒मु॒र॒त् । पोष्य॑म् । र॒यिम् । स॒नु॒तः । धे॒हि॒ । तम् । ततः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य इन्द्र सस्त्यव्रतोऽनुष्वापमदेवयुः । स्वैः ष एवैर्मुमुरत्पोष्यं रयिं सनुतर्धेहि तं तत: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । इन्द्र । सस्ति । अव्रतः । अनुऽस्वापम् । अदेवऽयुः । स्वैः । सः । एवैः । मुमुरत् । पोष्यम् । रयिम् । सनुतः । धेहि । तम् । ततः ॥ ८.९७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 36; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    हे (इन्द्र) प्रभो! (यः) जो मनुष्य (अव्रतः) सुकर्मरहित है; (अदेवयुः) अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रखता, अथवा उन्हें दिव्यगुणी नहीं बनाना चाहता और (अनुष्वापम्) निद्रा-आलस्य सहित (सस्ति) सोता रहता है; (सः) वह (स्वैः) अपने ही (एवैः) कृत्यों तथा आचरणों से (पोष्यम्) पुष्टियोग्य (रयिम्) ऐश्वर्य को (मुमुरत्) नष्ट कर देता है; (तम्) उस अकर्मण्य व्यक्ति को (ततः सनुतः) उस सनातन दान से परे (धेहि) हटा लें॥३॥

    भावार्थ - परमात्मा के दान सदातन तथा सनातन हैं। सुकर्महीन के भाग से वे निकल जाते हैं। हीनकर्मी को प्रभु प्रदत्त सत्य, सनातन भोग भी नहीं मिलते॥३॥

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