ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 14
त्वं पुर॑ इन्द्र चि॒किदे॑ना॒ व्योज॑सा शविष्ठ शक्र नाश॒यध्यै॑ । त्वद्विश्वा॑नि॒ भुव॑नानि वज्रि॒न्द्यावा॑ रेजेते पृथि॒वी च॑ भी॒षा ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । पुरः॑ । इ॒न्द्र॒ । चि॒कित् । ए॒नाः॒ । वि । ओज॑सा । स॒वि॒ष्ठ॒ । श॒क्र॒ । ना॒श॒यध्यै॑ । त्वत् । विश्वा॑नि । भुव॑नानि । व॒ज्रि॒न् । द्यावा॑ । रे॒जे॒ते॒ इति॑ । पृ॒थि॒वी इति॑ । च॒ । भी॒षा ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं पुर इन्द्र चिकिदेना व्योजसा शविष्ठ शक्र नाशयध्यै । त्वद्विश्वानि भुवनानि वज्रिन्द्यावा रेजेते पृथिवी च भीषा ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । पुरः । इन्द्र । चिकित् । एनाः । वि । ओजसा । सविष्ठ । शक्र । नाशयध्यै । त्वत् । विश्वानि । भुवनानि । वज्रिन् । द्यावा । रेजेते इति । पृथिवी इति । च । भीषा ॥ ८.९७.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
पदार्थ -
हे (शविष्ठ) नितान्त बलशाली! (शक्र) सर्व समर्थ! (इन्द्र) प्रभु! (त्वम्) आप (पुरः) दुष्टता से भरे-पूरे नगरों का (ओजसा) अपने प्रभाव से ही (वि, नाशयध्यै) विध्वंस करना (चिकित्) भली-भाँति जानते हैं। हे (वज्रिन्) दुर्भेद्य साधनयुक्त! (विश्वानि भुवनानि त्वत्) यों तो सकल लोक ही आपके हैं (च) परन्तु (द्यावापृथिवी) ये हमारे सामने प्रत्यक्ष विद्यमान द्युलोक, पृथिवी लोक तो (भीषा) भय से (रेजेते) मानो प्रकाशित ही हैं॥१४॥
भावार्थ - प्रभु दुष्टता के सभी स्थलों से परिचित है और उसके प्रभाव से वे नष्ट होते जाते हैं। सभी लोक-लोकान्तर उसके शासनाधीन हैं तो हमारी इस शरीररूपी नगरी में विद्यमान शत्रु भला उससे कैसे बचे रह सकते हैं?॥१४॥
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