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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 98/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नृमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    वि॒भ्राज॒ञ्ज्योति॑षा॒ स्व१॒॑रग॑च्छो रोच॒नं दि॒वः । दे॒वास्त॑ इन्द्र स॒ख्याय॑ येमिरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽभ्राज॑न् । ज्योति॑षा । स्वः॑ । अग॑च्छः । रो॒च॒नम् । दि॒वः । दे॒वाः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । स॒ख्याय॑ । ये॒मि॒रे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभ्राजञ्ज्योतिषा स्व१रगच्छो रोचनं दिवः । देवास्त इन्द्र सख्याय येमिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽभ्राजन् । ज्योतिषा । स्वः । अगच्छः । रोचनम् । दिवः । देवाः । ते । इन्द्र । सख्याय । येमिरे ॥ ८.९८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 98; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    हे (इन्द्र) प्रभु! आप अपनी (ज्योतिषा) ज्योति से (विभ्राजन्) दीप्त हैं; आप (दिवः) प्रकाशलोक को भी (रोचनम्) प्रकाश के दाता अर्थात् उससे भी अधिक प्रकाशित (स्वः) शाश्वत सुख को (अगच्छः) पहुँचाते हैं। हे (इन्द्र) प्रभु! (देवाः) विद्वान् इसीलिये (ते) आपके साथ (सख्याय) मैत्री हेतु (येमिरे) प्रयत्न करते हैं॥३॥

    भावार्थ - प्रभु न केवल इस लोक का ऐश्वर्य तथा सुख ही प्रदान करता है, अपितु दिव्य सुख का दाता भी है। अतएव सभी विद्वान् उसकी मैत्री के इच्छुक रहते हैं॥३॥

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