ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 99/ मन्त्र 8
इ॒ष्क॒र्तार॒मनि॑ष्कृतं॒ सह॑स्कृतं श॒तमू॑तिं श॒तक्र॑तुम् । स॒मा॒नमिन्द्र॒मव॑से हवामहे॒ वस॑वानं वसू॒जुव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ष्क॒र्तार॑म् । अनिः॑ऽकृतम् । सहः॑ऽकृतम् । श॒तम्ऽऊ॑तिम् । श॒तऽक्र॑तुम् । स॒मा॒नम् । इन्द्र॑म् । अव॑से । ह॒वा॒म॒हे॒ । वस॑वानम् । व॒सु॒ऽजुव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इष्कर्तारमनिष्कृतं सहस्कृतं शतमूतिं शतक्रतुम् । समानमिन्द्रमवसे हवामहे वसवानं वसूजुवम् ॥
स्वर रहित पद पाठइष्कर्तारम् । अनिःऽकृतम् । सहःऽकृतम् । शतम्ऽऊतिम् । शतऽक्रतुम् । समानम् । इन्द्रम् । अवसे । हवामहे । वसवानम् । वसुऽजुवम् ॥ ८.९९.८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 99; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 8
पदार्थ -
[हम] (अवसे) आत्म रक्षा एवं सहायतार्थ (इष्कर्तारम्) इच्छा पूर्ति करने वाले, (अनिष्कृतम्) किसी अन्य द्वारा पापमुक्त न किये गये, (सहस्कृतम्) सब बलों के रचयिता, (शतमूतिम्) अपरिमित रक्षासाधनों से युक्त (शतक्रतुम्) अपरिमित प्रज्ञा तथा कर्मवाले, (समानम्) सबके प्रति समान, (वसवानम्) सब पर अपना करुणाहस्त रखने वाले (वसूजुवम्) सभी वस्तुओं के प्रेरक (इन्द्रम्) परमात्मा को (हवामहे) पुकारते हैं॥८॥
भावार्थ - सृष्टि में सर्वाधिक शक्तिशाली प्रभु ही है; वही हमारी देखरेख भलीभाँति कर सकता है। उसको आमन्त्रित करना, अन्तःकरण में उसे श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन आदि साधनों से आविर्भूत करना ही मानव का प्रथम धर्म है॥८॥ अष्टम मण्डल में निन्यानवेवाँ सूक्त व तीसरा वर्ग समाप्त।
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