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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - चतुष्पदा जगती सूक्तम् - अभय सूक्त

    इन्द्रं॑ व॒यम॑नूरा॒धं ह॑वाम॒हेऽनु॑ राध्यास्म द्वि॒पदा॒ चतु॑ष्पदा। मा नः॒ सेना॒ अर॑रुषी॒रुप॑ गु॒र्विषू॑चीरिन्द्र द्रु॒हो वि ना॑शय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म्। व॒यम्। अ॒नु॒ऽरा॒धम्। ह॒वा॒म॒हे॒। अनु॑। रा॒ध्या॒स्म॒। द्वि॒ऽपदा॑। चतुः॑ऽपदा। मा। नः॒। सेनाः॑। अर॑रुषीः। उप॑। गुः॒। विषू॑चीः। इ॒न्द्र॒। द्रु॒हः। वि। ना॒श॒य॒ ॥१५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं वयमनूराधं हवामहेऽनु राध्यास्म द्विपदा चतुष्पदा। मा नः सेना अररुषीरुप गुर्विषूचीरिन्द्र द्रुहो वि नाशय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। वयम्। अनुऽराधम्। हवामहे। अनु। राध्यास्म। द्विऽपदा। चतुःऽपदा। मा। नः। सेनाः। अररुषीः। उप। गुः। विषूचीः। इन्द्र। द्रुहः। वि। नाशय ॥१५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 15; मन्त्र » 2

    टिप्पणीः - २−(इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (वयम्) (अनुराधम्) अनुकूला राधा सिद्धिर्यस्मात्तम् (हवामहे) आह्वयामः (अनु) निरन्तरम् (राध्यास्म) सम्पन्ना भूयास्म (द्विपदा) पादद्वयोपेतेन मनुष्यादिना (चतुष्पदा) पादचतुष्टयोपेतेन गवादिना सह (नः) अस्मान् (सेनाः) शत्रुसेनाः (अररुषीः) नञ्पूर्वाद् रातेः क्वसु, ङीपि सम्प्रसारणं पूर्वसवर्णदीर्घश्च। अदात्र्यः। कृपणाः (मा उप गुः) मोपगच्छन्तु समीपं मा प्राप्नुवन्तु (विषूचीः) विष्वगञ्चनाः सर्वतो व्याप्ताः (द्रुहः) द्रुह्यन्ती रीतीः (विनाशय) विजहि ॥

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