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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 44

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - आञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त

    यो ह॑रि॒मा जा॒यान्यो॑ऽङ्गभे॒दो वि॒सल्प॑कः। सर्वं॑ ते॒ यक्ष्म॒मङ्गे॑भ्यो ब॒हिर्निर्ह॒न्त्वाञ्ज॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। ह॒रि॒मा। जा॒यान्यः॑। अ॒ङ्ग॒ऽभे॒दः। वि॒ऽसल्प॑कः। सर्व॑म्। ते॒। यक्ष्म॑म्। अङ्गे॑भ्यः। ब॒हिः। निः। ह॒न्तु॒। आ॒ऽअञ्ज॑नम् ॥४४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो हरिमा जायान्योऽङ्गभेदो विसल्पकः। सर्वं ते यक्ष्ममङ्गेभ्यो बहिर्निर्हन्त्वाञ्जनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। हरिमा। जायान्यः। अङ्गऽभेदः। विऽसल्पकः। सर्वम्। ते। यक्ष्मम्। अङ्गेभ्यः। बहिः। निः। हन्तु। आऽअञ्जनम् ॥४४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 2

    टिप्पणीः - २−(यः) (हरिमा) अ०१।२२।१। हरित-इमनिच् भावे। पाण्डुरोगः (जायान्यः) अ०७।७६।३। वदेरान्यः। उ०३।१०४। जै क्षये-आन्य। क्षयरोगः (अङ्गभेदः) अङ्गानां भेदकः (विसल्पकः) अ०६।१२७।१। वि+सृप सर्पणे-अच्, कन्, रस्य लः। शरीरे विसर्पणशीलो विसर्परोगः (सर्वम्) (ते) तव (यक्ष्मम्) राजरोगम् (अङ्गेभ्यः) शरीरावयवसकाशात् (बहिः) पृथक् (निः) नितराम् (हन्तु) नाशयतु (आञ्जनम्) म०१। संसारस्य व्यक्तिकारकं ब्रह्म। प्रलेपः ॥

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