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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 145 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 145/ मन्त्र 2
तमित्पृ॑च्छन्ति॒ न सि॒मो वि पृ॑च्छति॒ स्वेने॑व॒ धीरो॒ मन॑सा॒ यदग्र॑भीत्। न मृ॑ष्यते प्रथ॒मं नाप॑रं॒ वचो॒ऽस्य क्रत्वा॑ सचते॒ अप्र॑दृपितः ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इत् । पृ॒च्छ॒न्ति॒ । न । सि॒मः । वि । पृ॒च्छ॒ति॒ । स्वेन॑ऽव । धीरः॑ । मन॑सा । यत् । अग्र॑भीत् । न । मृ॒ष्य॒ते॒ । प्र॒थ॒मम् । न । अप॑रम् । वचः॑ । अ॒स्य । क्रत्वा॑ । स॒च॒ते॒ । अप्र॑ऽदृपितः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमित्पृच्छन्ति न सिमो वि पृच्छति स्वेनेव धीरो मनसा यदग्रभीत्। न मृष्यते प्रथमं नापरं वचोऽस्य क्रत्वा सचते अप्रदृपितः ॥
स्वर रहित पद पाठतम्। इत्। पृच्छन्ति। न। सिमः। वि। पृच्छति। स्वेनऽव। धीरः। मनसा। यत्। अग्रभीत्। न। मृष्यते। प्रथमम्। न। अपरम्। वचः। अस्य। क्रत्वा। सचते। अप्रऽदृपितः ॥ १.१४५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 145; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज-मोह मत कर।
महाराजा नहूष ने अपने जेष्ठ पुत्र को महाराजा शिव की अध्यक्षता में उनका राज्याभिषेक किया गया। राज्याभिषेक होने के पश्चात अपनी पालिका में विद्यमान हो करके चार सेवकों के द्वारा उन्होंने राष्ट्र को त्याग दिया। राष्ट्र को त्यागने के पश्चात वह भयंकर बनों में जा पहुँचे। भयंकर बनों में कहीं पर्वतों की असतो में उनका एक सेवक रुग्ण हो गया तो उन्होंने विचारा कि राजा को कैसे ले जाएं। सेवक जब एक मानव के लिए भयंकर बन में जब कहीं गमन करने ले तो कहीं जड़ भरत अपनी शान्त मुद्रा में आमा में लीन हुआ वह महापुरुष शान्त विद्यमान है। उन्हें वे लाए और लाकर के उस पालकी में एक आङ्गन में जहाँ वह रुग्ण आबृत कार्य नहीं कर रहाथा तो वह उसमें अवृत कर दिया। जब पालिका को ले करके गमन करने लगे तो वे जानते नहीं थे, कहीं ऊर्ध्वा में, कहीं ध्रुवा में, कहीं ऊर्ध्वा में। राजा को क्रोध आया। राजा को क्रोध जब आ गया तो पालिका को स्थिर करते हुए उन्होंने कहा अरे, धूर्त! यह क्या कर रहा है। राजा अपना एक शस्त्र, एक दण्ड ले रहा था, राजा ने दण्ड से उसे आक्रमण करना प्रारम्भ किया। वह आक्रमण करता रहा। राजा जैसे शान्त हुआ तो जड़ भरत बड़े मग्न हुए और प्रभु से नमस्कार किया उन्होंने और जड़ भरत ने यह कहा हे प्रभु! जब तेरे द्वार पर ऐसे ऐसे पुरुष पहुँचेंगे तो प्रभु! उनकी क्या दशा करोगे आप? मैंने तो पूर्वजन्म में एक हिरनी के बाल्य से मोह किया था। हे प्रभु! मेरी तो यह गति हो रही है कि राजा ने मुझे अपने राष्ट्र से दूर कर दिया है, मुझे नाना प्रकार की यातनायें दी है। प्रभु! यह आपका ही तो कौतुक है। प्रभु! आपने ही तो यह दण्डित किया है। हे प्रभु! यह जो क्रोध भी करते हैं और कामना भी विशेष किया करते हैं, जब ये तेरे द्वार पर पहुँचेंगे तो इनकी क्या गति होगी? जब वे मग्न हो करके शान्त हुए तो राजा बड़े आश्चर्य हुए।
नहूष ने कहा कि हे धूर्त! तुम मग्न क्यों हो रहे हो? तुम्हें धूर्त मैं कह गया हूँ परन्तु तुम तो मुझे विशेष प्राणी प्रतीत होते हो, प्रभु! तुम कौन हो? उन्होंने कहा कि मुझे जड़ भरत कहते हैं और मैं अपने प्रभु से यह कह रहा हूँ कि पूर्व जन्म में शाकल्य मुनि मेरा नामोकरण था। तो प्रभु! मैं मोक्ष की पगडण्डी के निकट चला गया था और जब मोक्ष को पगडण्डी के निकट चला गया तो मुझे हिरनी के बाल्यसे मोह हो गया। हे प्रभु! उस मोह के कारण माता के गर्भ में मुझे आना हुआ। मैं मोक्ष की पगडण्डी के निकट से संसार में चला आया। मैं उस भौतिक जगत में चला गया जहाँ नाना प्रकार की यातनाओं में मानव सदैव रत्त रहता है। प्रभु! हे राजन्! मैं उसी आभा में एक माता के गर्भ में आयां राजा ने मुझे अपने राष्ट्र से दूरी कर दियां मैंने प्रभु से यह सङ्कल्प कर लिया कि मैं अब मोह नहीं करूंगा तो मैं प्रभु से यह प्रार्थना कर रहा हूँ। हे राजन्! तुममें देखो, मोह तो है ही परन्तु क्रोध भी है और क्रोध की अग्नि में मानो कामना से बाह्य होकर के जो हुआ इससे क्रोध की अग्नि जागरूक है तो मैं प्रभु से यह कह रहा हूँ हे प्रभु! जब यह प्राणी तेरे द्वार पर पहुँचेंगे तो इसकी क्या गति होगी? क्या दशा बनेगी प्रभु! देखो, महाराजा नहूष अपने अन्तर्हृदय में शोकातुर हो गएं और ऋषि के चरणों में ओत प्रोत होकर यह कहा कि प्रभु! मुझे क्षमा कीजिए।
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