ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 20
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
द्वा सु॑प॒र्णा स॒युजा॒ सखा॑या समा॒नं वृ॒क्षं परि॑ षस्वजाते। तयो॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्त्यन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भि चा॑कशीति ॥
स्वर सहित पद पाठद्वा । सु॒ऽप॒र्णा । स॒ऽयुजा॑ । सखा॑या । स॒म॒नम् । वृ॒क्षम् । परि॑ । स॒स्व॒जा॒ते॒ इति॑ । तयोः॑ । अ॒न्यः । पिप्प॑लम् । स्वा॒दु । अत्ति॑ । अन॑श्नन् । अ॒न्यः । अ॒भि । चा॒क॒शी॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥
स्वर रहित पद पाठद्वा। सुऽपर्णा। सऽयुजा। सखाया। समानम्। वृक्षम्। परि। सस्वजाते इति। तयोः। अन्यः। पिप्पलम्। स्वादु। अत्ति। अनश्नन्। अन्यः। अभि। चाकशीति ॥ १.१६४.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 20
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -
व्याख्याः शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज
जब मैं आध्यात्मिक वाद में प्रवेश करता हूँ तो उस समय आध्यात्मिक विज्ञान मेरे समीप आने लगता है। यह आत्मा का इस प्रकृति से कितना सम्बन्ध है? कितना मिलान है? इन दोनों की कितनी सान्निधानता मानी चाहिए? ऐसा जब मैं विचारने लगता हूँ तब आत्मा इस आध्यात्मिक वाद में प्रवेश होती है। अपने स्वरूप में जब यह आत्मा प्रवेश होती है तो प्रकृतिवाद एक वाद रह जाता है एक प्रत्यय (साधारण) और नृत्य रह जाता है। नृत्य करने वाली जब तक आत्मा का प्रकृति से अच्छी प्रकार मिलान रहता है तो मुनिवरों! देखो, वाणी नृत्य करता रहता है। जब मुनिवरों! यह आत्मा इस प्रकृति से उपराम हो जाता है, अथवा यह अपने स्वरूप में चला जाता है, अपने स्वरूप में जाने के पश्चात् बेटा! वह जो परब्रह्म परमात्मा है जिसके सन्निधान मात्र से यह सर्वत्र जगत क्रियाशील हो रहा है। प्रकृति अपने अपने आसन पर नृत्य कर रही है यह उसके उस प्रकाश में रमण करने लिए तत्पर हो जाता है जिसमें मुनिवरों! क्योंकि ब्रह्म इस आत्मा में ओत प्रोत है। आत्मा मुनिवरों! इस प्रकृति के अंगों अंगों को जानने वाला है। अंगों उपअंगों को जानने के पश्चात् बेटा! यह आत्मा उस पर ब्रह्म परमात्मा में ओत प्रोत रहता है। उसी में रमण करता रहता है। जिस प्रकार माता का प्रिय पुत्र माता का शिशु माता की लोरियों मेंआनन्द को प्राप्त करता रहता है। तो मेरे प्यारे ऋषिवर! हमारे यहाँ ऋषि मुनियों ने ऐसा माना है। १ प्रकृति, २. आत्मा (जीवात्मा), ३. ब्रह्म को मानकर मानवीयता पर विचार करने से ही जीवन सफल होता है। तीनों को मानने से यथार्थता तथ महत्ता है।
संसार में बेटा! यह आत्मा परमात्मा का दोनों का विवाद है। यह एक विवाद नहीं, यह एक विचार है। और कैसा विचार है? हमारे यहाँ ऋत और सत् का विचार आता है। ऋषि मुनियों ने बेटा! इसके ऊपर बहुत ही अनुसन्धान किया। मुझे बेटा! महर्षि भारद्वाज मुनि की भी चर्चाएं ही नहीं और भी नाना जो ऊर्ध्व गति को ऋषि प्राप्त हुए, जैसे वायु मुनि महाराज हुए अन्य भी आचार्य हुए। उनका भी विचार जब हमारे समीप आने लगता है तो बेटा! मेरा हृदय तो गद् गद् होने लगता है। उन्होंने ऐसा कहा है कि संसार में मानव के लिए तीन वस्तुएं विचारने की हैं। सबसे प्रथम प्रकृति है, द्वितीय आत्मा और तृतीय ब्रह्म को माना है। परन्तु तीनों वस्तुओं को विचारने के पश्चात् श्रेष्ठवाद को लेकर संसार में जो अपनी मानवीयता को विचारता है वह अपनी मानवीयता में सफलता को प्राप्त होता रहता है। तो इसलिए मुनिवरों! हमारे यहाँ व्याप्य और व्यज्ञप्क्ता का बड़ा एक विषय भी गम्भीर माना गया है। जिसके ऊपर हमें बहुत समय पूर्व कहा गया। परन्तु इसके ऊपर नाना प्रकार की साधनाएं भी की। उस साधना के पश्चात् उस साधना में जो भी कुछ प्राप्त हुआ बेटा! वाणी उसके उच्चारण करने में मुनिवरों! देखो, असफल हो जाती है। क्योंकि उसमें मानव की वाणी अपना कार्य नहीं कर पाती। तो इसीलिए मैं तो यह कहा करता हूँ कि संसार में आत्मा परमात्मा और प्रकृति ये तीन पदार्थ है। तीनों पदार्थ को आज हमें भिन्न भिन्न स्वीकार करना और उन्हें विचारना। ये तीनों के स्वरूपों को जानना हमारी महत्ता मानी गई है। क्योंकि जड़ चेतन दोनों ही संसार में पदार्थ माने जाते हैं।
प्रकृति परमात्मा के सन्निधानमात्र से चेतना सी प्रतीत होती है। पर यथार्थ में प्रकृति जड़ है। ज्ञान शून्य है। विज्ञान का मौलिक स्त्रोत ब्रह्म ही है।
वास्तव में आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन माने गए हैं। परन्तु दोनों की विशेषता भिन्न भिन्न है। इस संसार में मेरे प्यारे ऋषिवर! जब हम इस मन के ऊपर जाते हैं मन की तरंगों के ऊपर जाते हैं तो यह प्रकृति का एक विषय आ जाता है। जो बेटा! देखो, आत्मा के सन्निधानमात्र से ही अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है। इसका जो कार्य है वह इतना विचित्र बन जाता है कि मानव इसके विषय में लेखनीबद्ध करता रहता है। लेखनियां समाप्त हो जाती है। मेरे प्यारे ऋषिवर! विचार क्या है? हमें मौलिक रूपों में हमें उस गम्भीरता से विचारना है कि हम उस पार ब्रह्म जो परमात्मा है जो विज्ञानमयी स्वरूप माना गया है। आज जितना भी विज्ञान है अथवा जितना भी भौतिकवाद में दृष्टिपात आता है, आध्यात्मिक वाद में दृष्टिपात आता है, उस विज्ञान की जो आभाएं हैं, तरंगे हैं उनका जो मौलिक स्त्रोत माना गया है बेटा! वह पार ब्रह्म परमात्मा ही माना गया है। तो आओ मेरे प्यारे ऋषिवर! आज हम उस अपने मनोहर देव की महिमा का गुणगान गाते हुए उस महान पार ब्रह्म परमात्मा को विचारते हुए, मानो जो शून्यता को क्रिया में लाने वाला जो प्रभु है बेटा! उसको हम सदैव अपने हृदय ने ध्यानावस्थित करते रहे। जिससे मुनिवरों! हमें आध्यात्मिक वाद, मानवीयता मुनिवरों! देखो, उसका दिग्दर्शन करके हम इस संसार सागर से पार होते हुए अपने जीवन को महान् बनाते चले जाए।
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