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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मथितो यामायनो भृगुर्वा वारुणिश्च्यवनों वा भार्गवः देवता - आपो गावो वा छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    पुन॑रेना॒ नि व॑र्तय॒ पुन॑रेना॒ न्या कु॑रु । इन्द्र॑ एणा॒ नि य॑च्छत्व॒ग्निरे॑ना उ॒पाज॑तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुनः॑ । ए॒नाः॒ । नि । व॒र्त॒य॒ । पुनः॑ । ए॒नाः॒ । नि । आ । कु॒रु॒ । इन्द्र॑ । ए॒नाः॒ । नि । य॒च्छ॒तु॒ । अ॒ग्निः । ए॒नाः॒ । उ॒प॒ऽआज॑तु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनरेना नि वर्तय पुनरेना न्या कुरु । इन्द्र एणा नि यच्छत्वग्निरेना उपाजतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुनः । एनाः । नि । वर्तय । पुनः । एनाः । नि । आ । कुरु । इन्द्र । एनाः । नि । यच्छतु । अग्निः । एनाः । उपऽआजतु ॥ १०.१९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 2

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -

    व्याख्याः शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज

    इन्द्रियों का विषय

    जब मैं सन्यास के क्षेत्र में आधुनिककाल में जाता हूँ, तो आधुनिककाल का समाज सन्यासी यह कहता है अहम् ब्रह्मऽस्मि मैं ब्रह्म बन गया हूँ। परन्तु जब उसके एक कांटा भी लग जाता है, तो ब्रह्म को अपने से दूरी कर देता है, परन्तु उस समय ब्रह्म की आभा समाप्त हो जाती है।

    मेरे पूज्यपाद गुरुदेव एक समय में महाराजा अश्वपति के राष्ट्र में पहुंचे भ्रमण करते हुए और राजा ने अपना आश्चर्य स्वीकार किया कि ऋषि का आगमन कैसे हुआ। उन्होंने कहा प्रभु! आइये आप कुछ पान कीजिए। तो पूज्यपाद गुरुदेव ने यह कहा कि मैं इस अन्न को पान नहीं करूंगा। राष्ट्र का अन्न दूषित अन्न होता है, राष्ट्र का अन्न मानो दूषित होता है, मैं इसको पान नहीं करूंगा। परन्तु देखो, आधुनिक काल का सन्यासी का कोई द्रव्यपति, विशेष द्रव्यपति राष्ट्र से जिसका सम्बन्ध हो गया है, वह शिष्य बन जाए तो वह अपने में यह स्वीकार करता है कि मेरे द्वारा तो राजा महाराजा शिष्य बने हुए है। उन्हीं का आहार करके अपनी आत्मा का हनन कर रहे है। मानो देखो, उस अन्न को पान करके वह अपना हनन कर रहे है। इसीलिए देखो, महापुरुषों का एक तिरस्कार हो रहा है। महर्षियों का तिरस्कार हो रहा है। अरे, सन्यास का हृास हो रहा है। उच्चारण करना तो प्रियता है, परन्तु मौन रह करके राजा को या समाज को ऊँचा बनाना, यह ज्ञानी पुरुषों का कर्तव्य रहा है। यह परम्परागतों से रहा है। मैं यह कहता रहता हूँ मैं पूज्यपाद गुरुदेव को आधुनिक काल में सन्यास की परम्परा का वर्णन, विलासियों का जीवन स्वीकार किया। संन्यासियों का जीवन दृष्टिपात करो, उनमें विलासिता है, लोलुपता है, द्रव्यता है। उच्चारण करने की क्षमता तो उनमें आ जाती है, परन्तु देखो, आत्मा को शोधन करने की क्षमता नहीं आ पाती।

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