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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 11 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
यस्ते॑ अग्ने सुम॒तिं मर्तो॒ अक्ष॒त्सह॑सः सूनो॒ अति॒ स प्र शृ॑ण्वे । इषं॒ दधा॑नो॒ वह॑मानो॒ अश्वै॒रा स द्यु॒माँ अम॑वान्भूषति॒ द्यून् ॥
स्वर सहित पद पाठयः । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽम॒तिम् । मर्तः॑ । अक्ष॑त् । सह॑सः । सू॒नो॒ इति॑ । अति॑ । सः । प्र । शृ॒ण्वे॒ । इष॑म् । दधा॑नः । वह॑मानः । अश्वैः॑ । आ । सः । द्यु॒ऽमान् । अम॑ऽवान् । भू॒ष॒ति॒ । द्यून् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते अग्ने सुमतिं मर्तो अक्षत्सहसः सूनो अति स प्र शृण्वे । इषं दधानो वहमानो अश्वैरा स द्युमाँ अमवान्भूषति द्यून् ॥
स्वर रहित पद पाठयः । ते । अग्ने । सुऽमतिम् । मर्तः । अक्षत् । सहसः । सूनो इति । अति । सः । प्र । शृण्वे । इषम् । दधानः । वहमानः । अश्वैः । आ । सः । द्युऽमान् । अमऽवान् । भूषति । द्यून् ॥ १०.११.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 11; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -
व्याख्याः शृङ्गी मुनि कृष्णदत्त जी महाराज
कल्याणमयी वेदवाणी
बेटा! वेद मन्त्रों की जो प्रतिभा है, वह मानव को कहीं का कहीं मानो देखो, वर्णित कर रही है। उसी वर्णन शैली में, जब हम प्रवेश करते है तो अन्तर्हृदय गद् गद् हो जाता है।
देखो, मुनिवरों! आज हम तुम्हारे समक्ष पूर्व की भान्ति कुछ वेदमन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे, ये भी तुम्हे प्रतीत हो गया होगा। आज हमने पूर्व से जिन वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया, हमारे यहां परम्परागतों से ही उस मनोहर वेदवाणी का प्रसारण होता रहता है, जिस पवित्र वेदवाणी में उस परमपिता परमात्मा की महिमा का गुणगान गाया जाता है, क्योंकि वे परमपिता परमात्मा महिमावादी हैं, और वे सर्वज्ञ जगत के नियन्ता अथवा निर्माण करने वाले हैं, और जितना भी ये जड़ जगत अथवा चैतन्य जगत हमे दृष्टिपात आ रहा है, उस सर्वत्र ब्रह्माण्ड के मूल में प्रायः वे परमपिता परमात्मा दृष्टिपात आते रहते हैं। प्रत्येक मानव का ये कर्तव्य है, क्या उस परमात्मा की अनुपम सृष्टि को निहारना चाहिए, और उसको अन्तर्हृदय में जो मानव धारयामि बना लेता है, अथवा धारण कर लेता है, तो उस मानव का हृदय विशाल और पवित्रता को प्राप्त हो जाता है। तो परमात्मा की सृष्टि को दृष्टिपात करना अथवा उसे निहारना और हृदय स्थलि में सर्वत्र ज्ञान और विज्ञान को उसमें धारण करना उसमें समावेश करना ये प्रत्येक मानव का कर्तव्य कहलाता है। जिससे मानव के अन्तर्हृदय में एक पवित्रता का समूह उपलब्ध हो जाए। और जिस समूह के द्वारा हमारा जीवन महान बनता है। उस साम्यता को प्रायः हम दृष्टिपात करते रहें। तो आज का हमारा वेदमन्त्र ये उदगीत गा रहा है, क्या इस संसार में मानव जब याग के क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो भिन्न भिन्न प्रकार के यागों का चयन करने लगता है, आज कहीं से मुझे ये प्रेरणा आ रही है, कि सविता के सम्बन्ध में कुछ विचार विनिमय दिया जाए।
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