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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र ते॑ यक्षि॒ प्र त॑ इयर्मि॒ मन्म॒ भुवो॒ यथा॒ वन्द्यो॑ नो॒ हवे॑षु । धन्व॑न्निव प्र॒पा अ॑सि॒ त्वम॑ग्न इय॒क्षवे॑ पू॒रवे॑ प्रत्न राजन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । य॒क्षि॒ । प्र । ते॒ । इ॒य॒र्मि॒ । मन्म॑ । भुवः॑ । यथा॑ । वन्द्यः॑ । नः॒ । हवे॑षु । धन्व॑न्ऽइव । प्र॒ऽपा । अ॒सि॒ । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । इ॒य॒क्षवे॑ । पू॒रवे॑ । प्र॒त्न॒ । रा॒ज॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ते यक्षि प्र त इयर्मि मन्म भुवो यथा वन्द्यो नो हवेषु । धन्वन्निव प्रपा असि त्वमग्न इयक्षवे पूरवे प्रत्न राजन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । यक्षि । प्र । ते । इयर्मि । मन्म । भुवः । यथा । वन्द्यः । नः । हवेषु । धन्वन्ऽइव । प्रऽपा । असि । त्वम् । अग्ने । इयक्षवे । पूरवे । प्रत्न । राजन् ॥ १०.४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 1

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -

    व्याख्ताः शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज

    प्रभु की अनन्तता

    हमारे यहाँ वैज्ञानिकों का जब प्रसंग आता है तो हृदय से तरगें उत्पन्न होती है, उन तरंगों का बाह्य जगत से समन्वय होता है और बाह्य जगत के विषयों को जो कार्यवाहक दिया जाता है, तो उस कार्य देने में ही तरंगों के ऊपर, अनुसन्धान प्राणी ने किया है, परन्त दूसरी तरंगें अनुसन्धान के लिए उपस्थित हो जाती हैं। जैसे एक मानव यह विषय ले करके चला है, कि मुझे एक बिन्दु को विचारना हैं मानो वह बिन्दु कौनसा है, जिस बिन्दु से मानव के शरीर की रचना होती हैं अथवा यह ले लीजिए कि जितने भी संसार के जंगम प्राणी मात्र हैं, परन्तु उनके एक ही बिन्दु से उनकी एक ही रचना होती हैं परन्तु यदि उस बिन्दु के गर्भ में, उस बिन्दु के परमाणुवाद के ऊपर अनुसन्धान करने लगते हैं, तो कितना विशाल एक वृक्ष उत्पन्न हो जाता हैं और उस वृक्ष के ऊपर भी ओर अनुसन्धान करते हैं तो बेटा! मानव की वाणी मौन हो जाती है एक मानव सुदृष्टिपान कर रहा है तो उसमें धर्म की प्रतिभा, धर्म के ऊपर मुनिवरों! देखो, उसका गम्भीर अध्ययन हो गया हैं। तो नेत्रों में अनुपम शक्ति आ जाती हैं, नेत्रों में एक अनुपम तेज आ गया हैं जिस तेज के ऊपर चिन्तन करता हुआ प्राणी, अन्त में मौन हो जाता है।

    तो मानो देखो, आज मैं तुम्हें बेटा! मोक्ष की चर्चा तो देने नही आया, विचार क्या मानो देखो, आज का हमारा विचार, यह चल रहा हैं कि हम मुनिवरों! देखो, किसी भी विषय को लेते हैं तो मौन हो जाते हैं, कोई भी विषय संसार का हो, मानो देखो, चाहे वह एक कृतिका का विषय हो, चाहे, अनुकम्पका का विषय हो, चाहे आयुर्वेद का विषय हो, चाहे मोक्ष और आनन्द का विषय हो, किसी भी क्रिया में जब दर्शनों में हम तुम्हें ले जाएंगें, तो वह विषय एक अनन्तता में अन्तिम जो छोर है उसका, वह मानो देखो, नेति प्रतिपादित हो जाता हैं, वह नेति में उसकी प्रतिभाषिता चली जाती है। तो परिणाम क्या, मानो देखो, हमें यह विचारना हैं, हमें उस आभा में परणित होना है, कि हम अपने को सुखद और आनन्द के उस मार्ग पर ले जाने के लिए आए हैं, हम उस आत्म तत्त्व को जानने के लिए आए हैं जो आत्म तत्त्व हमारे शरीर में प्रवेश हो रहा हैं। ज्ञान का एक पुंज बना हुआ हैं परन्तु देखो, क्रियाशील बना रहा है, प्रत्येक प्राणी उससे क्रियाशील हो रहा हैं, उसके क्रियात्मक जीवन को हमें पान करके, इस सागर से पार होने का प्रयास करना है।

    पूज्य महानन्द जीः भगवन! आपने औषधि विज्ञान को आज त्याग दिया।

    पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! औषधि विज्ञान त्यागा नही, परन्तु यह भी उसी का एक अङ्ग हैं उसका अङ्ग नही, मैं यह उच्चारण कर सकता हूँ कि उसकी एक ऊपरी धारा हैं, जिससे औषध विज्ञान उसके नीचे रहता हैं, मैंने तुम्हें एक औषध विज्ञान ही नही, हृदय की अनुक्रमणिका, हृदय की एक धारा, एक वर्णन किया है।

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