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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 65 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
प्रति॑ वां॒ सूर॒ उदि॑ते सू॒क्तैर्मि॒त्रं हु॑वे॒ वरु॑णं पू॒तद॑क्षम् । ययो॑रसु॒र्य१॒॑मक्षि॑तं॒ ज्येष्ठं॒ विश्व॑स्य॒ याम॑न्ना॒चिता॑ जिग॒त्नु ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । वा॒म् । सूरे॑ । उत्ऽइ॑ते । सु॒ऽउ॒क्तैः । मि॒त्रम् । हु॒वे॒ । वरु॑णम् । पू॒तऽद॑क्षम् । ययोः॑ । अ॒सु॒र्य॑म् । अक्षि॑तम् । ज्येष्ठ॑म् । विश्व॑स्य । याम॑न् । आ॒ऽचिता॑ । जि॒ग॒त्नु ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति वां सूर उदिते सूक्तैर्मित्रं हुवे वरुणं पूतदक्षम् । ययोरसुर्य१मक्षितं ज्येष्ठं विश्वस्य यामन्नाचिता जिगत्नु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । वाम् । सूरे । उत्ऽइते । सुऽउक्तैः । मित्रम् । हुवे । वरुणम् । पूतऽदक्षम् । ययोः । असुर्यम् । अक्षितम् । ज्येष्ठम् । विश्वस्य । यामन् । आऽचिता । जिगत्नु ॥ ७.६५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज-सू्र्योदय काल में उपासना।
देखो, मुनिवरों! अभी अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ। आज हम तुम्हारे समक्ष, पुनः की भान्ति कुछ वेद मन्त्रों का गान गा रहे थे। आज कैसा सुहावना समय है। जिस सुन्दर समय में परमपिता परमात्मा ने हमें इन वेद मन्त्रों के उच्चारण करने का सुअवसर दिया। आज इस अमृतबेला में उस गान को गाएं जिससे हम देवता बन जाएं मुनिवरों! देवता जन प्रातःकाल में कैसे अमृत को पान किया करते हैं।
हे इन्द्र! इस संसार को नियम से बनाने वाले! हमारे जीवन को भी नियमित बना। जब हमारा जीवन नियमित होगा तो हम सब ही कुछ कार्य कर सकेंगे। आपने प्रातःकाल में सूर्य को उत्पन्न किया है इसी प्रकार हे देव! हम उस महान ज्योति को चाहते हैं जिससे हमारा आत्मिक कल्याण हो। वह कौन सी ज्योति है?
मुनिवरों! वह ज्योति हमारी सन्ध्या की व्याहृतियां हैं जब सन्ध्या की व्याहृतियों को जाना जाता है तो वह सन्ध्या वास्तव में हमारा कल्याण करा देती है। जब देवता सन्ध्या के द्वार पर जाते हैं तो सन्ध्या पुकार कर कहती है कि हे देवताओं तुम आदि मेरा आदर करोगे, अनुकरण करोगे तो तुम संसार में देवता बन जाओगे यदि तुम मुझे ठुकराओगे तो तुम संसार में ठुकराए जाओगे।
मुनिवरों! आज हम विचारते नहीं प्रातःकाल के पर्व में हमारा हृदय निर्मल और स्वच्छ कैसे बन सकता है? प्रातःकाल की गंगा में स्नान से बन सकता है। माता दुर्गा की पूजा से बन सकता है। आज उस सन्ध्या के अनुसरण करने से बन सकता है।
आज आरम्भ के मन्त्र में ही प्रातरग्नि आ रहा था। हे प्रातःकाल की अग्नि! तू हवि है। तू हव्य पदार्थों को उत्पन्न करने वाली है। तू हमें हव्य पदार्थों का पान करा जिससे हम देवता बन जाएं और देवता गणों के समाज में विराजमान होकर देव वाणियों को कुछ विचारें हमारी विचारधाराएं हर स्थान में देव वृत्ति ही बनी रहे।
आज हमें इस आत्मा के ऊपर बहुत चिन्तन करना है, प्रातःकाल की अमृतबेला में बेटा! ये पुनः समय प्राप्त हो रहा है। कि वेद ज्ञान को ही उच्चारण करने का हमारा, यह कितना ऊँचा, महान सौभाग्य है, परमात्मा की कितनी अनुपम देन है, कि हम प्रातःकाल की अमृत बेला में, आज हम देखो, आत्मा सूक्तों का पठन पाठन करते चले जा रहे थे।
जहाँ मानव आत्मा के, शरीर के भोजन के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है, नाना प्रकार के साधन एकत्रित करता है, उसी प्रकार आत्मा को भी भोजन देने का भी प्रयास, मानव को इससे कई गुणा करना चाहिए। कि मानव इस संसार में आ करके बेटा! अपने अन्तर्द्वन्द्व में न जाएं। क्योंकि बेटा! जिसके प्रकाश में हम सदैव रमण करते रहते है, उसी की क्रिया से, हमारा जीवन सदैव क्रियाशील रहता है, हमें उस परमपिता परमात्मा की आराधना, उपासना प्रातःकाल में करनी चाहिए।
मेरे प्यारे! आज से लाखों वर्षों पूर्व मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने मुझे निर्णय कराया। यह वह मेरे पूज्यपाद गुरुदेव अमूल्य आदेश दिया करते थे। बारम्बार यज्ञ की धारा चलती थी अन्तरिक्ष में।
मुनिवरों! जहाँ मेरे पूज्यपाद का आश्रम था आश्रम में उस महान वाणी से, उस विद्या से सुशोभित आश्रम था। जैसे मुनिवरों! वृक्ष के पुष्प आ जाते हैं, या फल वाले वृक्ष पर फल आ जाते हैं और वह वृक्ष फलों से सुशोभित रहता है, इसी प्रकार मेरे पूज्यपाद गुरुदेव के सदाचार और सतोगुण से आश्रम परिबद्ध रहता था, जिससे मृगराज भी बेटा! उस महानता के इच्छुक रहते थे, पक्षीगण भी शान्त थे, मानव कोई चला जाता तो उसका हृदय भी पवित्र हो जाता था।
मेरे प्यारे! ऋषिवर! प्रातःकाल की अमृतबेला में, जब सूर्य उदय होता है, तो अपने महानता को ले करके, जब वह अग्रणीय होता है, तो बेटा! यह जगत पवित्र बनता चला जाता है, अहा! जब यह जगत पवित्र बन जाता है, तो मानव अपने में सुखद अनुभव करने लगता है, उसके मनों में विचार में बेटा! एक ही लक्ष्य होता है, कि मैं आनन्दित हो गया हूँ।
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