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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ दैव्या॑ वृणीम॒हेऽवां॑सि॒ बृह॒स्पति॑र्नो मह॒ आ स॑खायः । यथा॒ भवे॑म मी॒ळ्हुषे॒ अना॑गा॒ यो नो॑ दा॒ता प॑रा॒वत॑: पि॒तेव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । दैव्या॑ । वृ॒णी॒म॒हे॒ । अवां॑सि । बृह॒स्पतिः॑ । नः॒ । म॒हे॒ । आ । स॒खा॒यः॒ । यथा॑ । भवे॑म । मी॒ळ्हुषे॑ । अना॑गाः । यः । नः॒ । दा॒ता । प॒रा॒ऽवतः॑ । पि॒ताऽइ॑व ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ दैव्या वृणीमहेऽवांसि बृहस्पतिर्नो मह आ सखायः । यथा भवेम मीळ्हुषे अनागा यो नो दाता परावत: पितेव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । दैव्या । वृणीमहे । अवांसि । बृहस्पतिः । नः । महे । आ । सखायः । यथा । भवेम । मीळ्हुषे । अनागाः । यः । नः । दाता । पराऽवतः । पिताऽइव ॥ ७.९७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 2

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज-परमात्मा का वरण कर

    हमारे यहाँ परम्परा से ही उस मनोहर वेदवाणी का प्रसारण होता रहता है। जिस पवित्र वाणी में उस परमपिता परमात्मा के ज्ञान और विज्ञान का वर्णन किया जाता है। मानव के जीवन में परमपिता परमात्मा वरण करने योग्य है, जो मानव उसका वरण कर लेता है, वह मानव अमरावती को प्राप्त हो जाता है।

    वह मेरा देव कितना अनुपम है, वह कितना वरणीय है। उसी मानव को मानवता प्राप्त होती है, जो उसे वर लेता है। उसी को वह प्राप्त होने लगता है। इसीलिए हमारे ऋषि मुनियां ने कहा है, उस परमपिता परमात्मा को हमें वर लेना चाहिए। जो मानव उसे वर लेता है अथवा उसका वरण कर लेता है, वह उसी के समीप आना प्रारम्भ हो जाता है।

    इसीलिए आचार्यों ने कहा है कि उस परमपिता परमात्मा को वरण कर लेना चाहिए। जिस प्रकार यज्ञशाला में यज्ञमान अपने पुरोहित को वरण कर लेता है, ब्रह्मा को वरण करता है, जब वह उसे वर लेता है तो उसका याग सम्पनन हो जाता है। इसी प्रकार हे मानव! तू अपने आन्तरिक याग को ऊँचा बनाना चाहता है, उसको पूर्ण रूपेण दृष्टिपात करना चाहता है, तो तू अपने प्रभु का वरण कर लें और उसको वरण करके अपने अन्तर्हृदय रुपी गुफा में उसको स्थिर कर ले।

    जब हृदय रुपी गुफा में उस परमपिता परमात्मा को तुम दृष्टिपात कर लोगे तो बेटा! उसे अपना स्वामित्व वरणत्व को प्रदान करते हो, तो तुम आत्म याग को पूर्ण कर सकोगे। जैसे मानव बाह्य यज्ञशाला में अग्न्याधान करता है, मानव उसी प्रकार अपने हृदय में, अन्तर्गुफा में ज्ञान रुपी अग्नि को जागरूक कर लेता है। जब वह ज्ञान रुपी अग्नि जागरूक हो जाती है तो यह जो नाना होता इस मानव शरीर में है यह नाना प्रकार के साकल्य के द्वारा यज्ञशाला में हूत करने लगते हैं, देवता प्रसन्न हो जाते हैं।

    आओ, आज हम परमपिता परमात्मा की और अपने मध्य में जो नाना सन्धियां हैं उन सन्धियों को हम एक सूत्र में लाना चाहते हैं परन्तु वह नाना सन्धियां क्या हैं? वह जो नाना प्रकार की जो प्रकृति की अमूल्य तरंगें हैं अथवा मूल में मन में विराजमान रहती हैं, उन मूल तरंगों को हम अपने मध्य से दूरी करते हुए ज्ञान और विवेक के द्वारा व्यापक बनाते हुए और उसको आकुञ्चन करते हुए अथवा अपने मध्य में वह जो प्रभु का परम, सुखद, आनन्द रुप कहलाया जाता है। उस आनन्द रुप को प्राप्त करने के लिए हम नाना प्रकार की जो हम सीमाओं में परणित रहते हैं। उन सीमाओं से हमें उत्तीर्ण होना है, उन्हें अपने से दूर करना है जिससे हमारे जीवन में महत्ता की तरंगें ओत प्रोत हो जाएं।

    हे मानव! तू स्वर्ग को चल, तू स्वर्ग को प्राप्त करने वाला बन। तू आनन्द को प्राप्त कर। आनन्द ही तेरे जीवन की साथी है आनन्द ही तेरा जीवन है। आनन्द ही तेरा स्वभाव है। उस आनन्द को प्राप्त कर। आनन्द तुझे प्रभु के द्वार पर प्राप्त होगा। प्राणी बेटा! ऊँचे ऊँचे व्याख्यानों से आत्मा को नहीं जान सकता। बेटा! नाना वाक्यों को श्रवण करने से भी नहीं जान सकता। अरे, आत्मा को तो वह जानता है जो आत्मा को वरण कर लेता है।

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