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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 98/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यद्द॑धि॒षे प्र॒दिवि॒ चार्वन्नं॑ दि॒वेदि॑वे पी॒तिमिद॑स्य वक्षि । उ॒त हृ॒दोत मन॑सा जुषा॒ण उ॒शन्नि॑न्द्र॒ प्रस्थि॑तान्पाहि॒ सोमा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । द॒धि॒षे । प्र॒ऽदिवि॑ । चारु॑ । अन्न॑म् । दि॒वेऽदि॑वे । पी॒तिम् । इत् । अ॒स्य॒ । व॒क्षि॒ । उ॒त । हृ॒दा । उ॒त । मन॑सा । जु॒षा॒णः । उ॒शन् । इ॒न्द्र॒ । प्रऽस्थि॑तान् । पा॒हि॒ । सोमा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्दधिषे प्रदिवि चार्वन्नं दिवेदिवे पीतिमिदस्य वक्षि । उत हृदोत मनसा जुषाण उशन्निन्द्र प्रस्थितान्पाहि सोमान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । दधिषे । प्रऽदिवि । चारु । अन्नम् । दिवेऽदिवे । पीतिम् । इत् । अस्य । वक्षि । उत । हृदा । उत । मनसा । जुषाणः । उशन् । इन्द्र । प्रऽस्थितान् । पाहि । सोमान् ॥ ७.९८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 98; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 2

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज-श्रेष्ठ अन्न का चाहने वाला इन्द्र

    जब पितामह भीष्म यह उपदेश दे रहे थे, तो महारानी द्रौपदी ने कहा कि हे पितर! आपका यह उपदेश उस समय कहाँ था? उस काल में जब मैं रजोमय (रजस्वला) थी और मुझे महाराजा दुर्योधन इस सभा में, हस्तिनापुर के आङ्गन में मुझे नग्न करना चाहते थे? उस समय यह आपका ब्रह्ममय उपदेश कहाँ था? उस समय पितामह भीष्म बोले, हे देवी! हे पुत्री! मैं उस समय, क्योंकि राष्ट्र का मैंने पापमयी अन्न को ग्रहण किया था। अन्न से ही मानव के द्वारा मज्जा की उत्पत्ति होती है, ओज उत्पन्न होता है। उसी से बुद्धि का निर्माण होता है। मेरी बुद्धि उसी प्रकार की हो रही थी। मैं उस समय देखो, वशीभूत था अन्नादि के। मेरे प्यारे! देखो, और आज तेरे इस पवित्र अन्न से जो तू मुझे पान कराती है और मानो देखो, अर्जुन के तीखे बाणों ने रक्त का शोषण कर दिया है। आज मेरी बुद्धि निर्मल बन रही है। तो मेरे प्यारे! देखो, मेरा उत्तरायण आ गया है।

    मुनिवरों! देखो, उत्तरायण सूर्य की प्रतीक्षा में नहीं था। वह देवता, वह ब्रह्मचारी इस प्रतीक्षा में था कि मुझे ज्ञान हो जाए, मुझे विवेक हो जाए। जिस समय मैं प्राणों का त्याग करने वाला हूँ। क्योंकि सूर्य का मानव के जीवन से, आत्मा से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। ज्ञान रुपी सूर्य से आत्मा का सम्बन्ध है।

    मेरे प्यारे! मुझे स्मरण है महाराजा भीष्म ने एक वर्ष चार दिवस में मुनिवरों! देखो, अपने शरीर को त्यागा था। इतने समय तक महारानी द्रौपदी उसे पवित्र गायत्री छन्दों से गुंथे हुए अन्न को पान, कराती रहती थी, मानो देखो, जिससे उसकी बुद्धि निर्मल हो गई, ज्ञान हो गया। क्योंकि ज्ञान तो उन्हें पूर्व था। बाल्य काल में बहुत अध्ययन किया था। माता को वे ज्ञान देते रहते थे।

    मुनिवरों! देखो, इसी प्रकार जो माता अपने पुत्र को यह चाहती है कि मेरा पुत्र पवित्र बने, मेरे पुत्र में महत्ता आ जाए तो माता गायत्री छन्दों का पठन पाठन करके जब माता अपने पुत्र को शुद्ध विचारों का भोज्य कराती है, तो वह माता सौभाग्यशालिनी होती है। उस माता के आभा में ही मानो देखो, पुत्रों! का जन्म होता है, आभा में ही पुत्रों! को महान बना देती है।

    मेरे पुत्रो! मैं आज विशेष चर्चा तुम्हें देने नहीं आया हूँ। आज जैसे माता मन्दालसा का वर्णन आता रहता है। वे गर्भ से ले करके ५ वर्ष तक तो शिक्षा देती रहती थी। अन्नादि पवित्रता से ग्रहण कराती रहती थी। ब्रह्मवेत्ता बन जाते थे। पुत्र अहा! वह माता सौभाग्यशाली है जिस माता के गर्भ से ब्रह्मवेत्ता पुत्रां का जन्म होता है, बुद्धिमानो  का जन्म होता है।

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