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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒वि॒ज्ञा॒नं चि॑कि॒तुषे॒ जना॑य॒ सच्चास॑च्च॒ वच॑सी पस्पृधाते । तयो॒र्यत्स॒त्यं य॑त॒रदृजी॑य॒स्तदित्सोमो॑ऽवति॒ हन्त्यास॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽवि॒ज्ञा॒नम् । चि॒कि॒तुषे॑ । जना॑य । सत् । च॒ । अस॑त् । च॒ । वच॑सी॒ इति॑ । प॒स्पृ॒धा॒ते॒ इति॑ । तयोः॑ । यत् । स॒त्यम् । य॒त॒रत् । ऋजी॑यः । तत् । इत् । सोमः॑ । अ॒व॒ति॒ । हन्ति॑ । अस॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते । तयोर्यत्सत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽविज्ञानम् । चिकितुषे । जनाय । सत् । च । असत् । च । वचसी इति । पस्पृधाते इति । तयोः । यत् । सत्यम् । यतरत् । ऋजीयः । तत् । इत् । सोमः । अवति । हन्ति । असत् ॥ ७.१०४.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 12
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 2

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्णदत्त जी महाराज-आवागमन के संस्कारों में प्रविष्ट ना हो

    एक समय महर्षि रेवक मुनि महाराज से भारद्वाज जी ने कहा था कि हे भगवन्! मैं यह जानना चाहता हूं कि यह जो हृदयरूपी गुफा है, मानो यह जो आत्मा का ज्ञान है, इसका जो विद्वान है उसका कोई ऐसा मूल कारण हो जिससे हमारे अन्तःकरण में वह संस्कार न उत्पन्न हों जिन संस्कारों से हमारे आवागमन की एक प्रतिभा बनती रहती हैगाड़ीवान रेवक थे उन्होंने कहा कि आपने यह वाक्य तो बहुत सुन्दर कहा है परन्तु इसका विचार विनिमय किया जाएंहमारे ऋषि मुनियों का हृदय बड़ा विशाल और सत्यवादी, स्पष्टवत् में प्राप्त होता रहा हैमहर्षि रेवक महान तपस्वी थे६१ वर्ष तक मौन धारण किया ६१ वर्ष तक उन्होंने निद्रा पान नहीं कियाउन्होंने कितना सुन्दर उत्तर दिया कि हे प्रभु! मैं इस प्रतिभा को अभी तक नहीं जानता क्योंकि इस पर मैं अनुसन्धान कर रहा हूंबेटा! उनका हृदय कितना महान होता हैआज हम जितने सत्यवादी बन जाते हैं तो हमारा हृदय निर्मल और स्वच्छ बनने लगता है नाना छलों से रहित हो जाता हैबेटा! वह संस्कार स्वतः ही मानव के हृदय में नहीं व्याप्ते जिनसे मानव का आवागमन बनने लगता हैभारद्वाज ने महर्षि रेवक जी को प्रणाम किया और प्रणाम करते हुए वह महर्षि पिप्लाद ऋषि के आश्रम में प्रविष्ट हो गयेपिप्लाद मुनि ने कहा कि आइये, ऋषिवर! पधारिएऋषि ने विराजमान होकर वही प्रश्न कियाउन्होंने कहा कि प्रभु! मैं यह जानना चाहता हूं कि मानव के द्वारा ऐसा कौन सा संकल्प है, ऐसा कौन सी प्रतिभा है जिससे आवागमन के संस्कार हमारे अन्तःकरण में प्रविष्ट न होने दें

    मुनिवरों! ऐसा कर्म क्या है? ऐसा कर्म है केवल अपनी चेतना को जाननाअपने में इतने सत्यवादी हो जाना कि अपने विचारों का व्यापक बनानाजितना संकीर्णवाद है उतना मानव को आवागमन में लाता हैप्रभु का जो राष्ट्र है, प्रभु का जो यह विज्ञानमयी जगत है, जिसके ऊपर प्रत्येक मानव आता है, परम्परा से आता चला गया है, अपना अनुसन्धान करता रहता है और उस परमात्मा की प्रतिभा को हम जानते हुए अपनी हृदय अगम्यता को प्रभु के हृदय में अगम्यता में जब परिणत कर देते हैं दोनों का समवन्य हो जाता है तो उस समय मानव इस संसार में कर्म करता हुआ भी इस जगत में उदासीन हो जाता हैआज हमें उन कर्मों को अपनाना है उस प्रतीभा को अपनाना है जिसको अपनाने के पश्चात् मानव का हृदय आगम्यवत को प्राप्त हो जाता हैमहर्षि भारद्वाज परमाणुवाद के वैज्ञानिक थेउनका अनुसन्धान प्रायः चलता रहता थारात्रि होती परन्तु उनका अनुसन्धान प्रारम्भ हो जाताअनुसन्धान उसको कहते हैं कि रात्रि क्यों आई, रात्रि किन कारणों से आती है संसार मेंइन प्रतिभाओं पर जब मानव का विचार विनिमय करने लगता है तो उसका हृदय इतना स्वच्छता को प्राप्त हो जाता है कि रात्रि भी उसे दिवस प्रतीत होने लगती हैकारण क्या है? वह महापुरूष जानता है कि प्रभु के राष्ट्र में रात्रि नहीं होतीप्रभु का राष्ट्र प्रकाशमय होता है, आनन्दमय होता है कि उसके राष्ट्र में रात्रि कोई लेश नहीं होताइसलिए महापुरूषों को रात्रि भी दिवस प्रतीत होने लगती है।

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