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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒वि॒ज्ञा॒नं चि॑कि॒तुषे॒ जना॑य॒ सच्चास॑च्च॒ वच॑सी पस्पृधाते । तयो॒र्यत्स॒त्यं य॑त॒रदृजी॑य॒स्तदित्सोमो॑ऽवति॒ हन्त्यास॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽवि॒ज्ञा॒नम् । चि॒कि॒तुषे॑ । जना॑य । सत् । च॒ । अस॑त् । च॒ । वच॑सी॒ इति॑ । प॒स्पृ॒धा॒ते॒ इति॑ । तयोः॑ । यत् । स॒त्यम् । य॒त॒रत् । ऋजी॑यः । तत् । इत् । सोमः॑ । अ॒व॒ति॒ । हन्ति॑ । अस॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते । तयोर्यत्सत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽविज्ञानम् । चिकितुषे । जनाय । सत् । च । असत् । च । वचसी इति । पस्पृधाते इति । तयोः । यत् । सत्यम् । यतरत् । ऋजीयः । तत् । इत् । सोमः । अवति । हन्ति । असत् ॥ ७.१०४.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 12
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    वस्तुतोऽत्र कः सत्यवादी कश्चासत्यवादीति निर्णीयते।

    पदार्थः

    (सत्, च) यत्सत्यं (असत्, च) यच्चासत्यम् (वचसी) उभे अपि वचसी (पस्पृधाते) मिथो विरुद्धे उच्येते ते वचसी (चिकितुषे, जनाय) विद्वान्नरः (सुविज्ञानम्) सुखेन विजानीते (तयोः, यत्, सत्यम्) तयोर्मध्ये यद्यथार्थमस्ति, तथा (यतरत्) यच्च (ऋजीयः) सरलतया ज्ञायते (तत्, इत्) तदेव (सोमः) परमात्मा (अवति) रक्षति (असत् हन्ति) कपटगदितं च निर्मुञ्चति ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    वास्तव में कौन सत्यवादी और असत्यवादी हैं, अब इसका निर्णय करते हैं।

    पदार्थ

    (सत्, च) जो सच्चे तथा (असत् च) जो झूठे (वचसी) वचन (पस्पृधाते) परस्पर विरुद्ध कहे जाते हैं, उनको (चिकितुषे, जनाय) विद्वान् लोग (सुविज्ञानम्) सहज ही में समझ सकते हैं, (तयोः, यत् सत्यम्) उन दोनों में जो सत्य है तथा (यतरत्) जो (ऋजीयः) सरल अर्थात् सीधे स्वभाव से कहा गया है। (तत् इत्) उसी की (सोमः) परमात्मा (अवति) रक्षा करता है और (असत्, हन्ति) जो कपट भाव से कहा गया झूठा वचन है, उसको त्याग करता है ॥१२॥

    भावार्थ

    तात्पर्य यह है कि अपनी ओर से वे देव और असुर दोनों ही सत्यवादी बन सकते हैं अर्थात् देवता कहेगा कि मैं सत्यवादी हूँ और असुर कहेगा कि मैं सत्यवादी हूँ, परन्तु ये बात वास्तव में ठीक नहीं, क्योंकि विद्वान् इसका निर्णय कर सकता है कि अमुक सत्यवादी और अमुक असत्यवादी है। सत्य भी दो प्रकार का होता है, जैसा कि “ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत” ॥ ऋग् १०।१९०।१॥ इस मन्त्र में वर्णन किया है अर्थात् वाणी के सत्य को ऋत कहते हैं और भाविक सत्य को अर्थात् वस्तुगत सत्य को सत्य कहते हैं। देवता वे लोग कहलाते हैं, जो वाणीगत सत्य तथा वस्तुगत सत्य के बोलने और माननेवाले होते हैं अर्थात् सत्यवादी और सत्यमानी लोगों का नाम वैदिक परिभाषा में देव और सदाचारी है, इनसे विपरीत असत्यवादी और असत्यमानी लोगों का नाम असुर और राक्षस है। और यह बात असुर इस नाम से भी स्वयं प्रकट होती है, क्योंकि ‘असुषु रमन्त इत्यसुरः’ जो प्राणमयकोश वा अन्नमयकोशात्मक शरीर को ही आत्मा मानते हैं, वे असुर हैं। इसी अभिप्राय से ‘असुर्या नाम ते लोकाः’। यजुः ४०।३। इस मन्त्र में असुरों के आत्मीय लोगों को ‘असुर्याः’ कहा। इस परिभाषा के अनुसार प्रकृति, पुरुष और परमात्मा की जो भिन्न-भिन्न सत्ता नहीं मानते, वे भी एक प्रकार के असुर ही हैं। भाव यह है कि इस मन्त्र में देव और राक्षस का निर्णय स्वयं परमात्मा ने किया है ॥१२॥

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    विषय

    सत्यासत्य का विवेक करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( चिकितेषु ) जानने वाले ( जनाय ) मनुष्य के लिये ( सत् च असत् च ) सत्य और असत्य दोनों ही ( सुविज्ञानं ) बहुत अच्छी प्रकार जानने योग्य होते हैं, विद्वान् सत्य और असत्य दोनों को सुगमता से ही जान लेता है, क्योंकि (सत् च असत् च वचसी) सत्य और असत्य दोनों वचन ( पस्पृधाते ) परस्पर स्पर्द्धा करते हैं। दोनों एक दूसरे के विरोधी होते हैं। ज्ञानी पुरुष के लिये विरोध का देखलेना कठिन नहीं होता। ( तयोः ) उन दोनों में ( यत् सत्यं ) जो भी सत्य है वो ( यतरत् ऋजीयः ) जो भी अधिक ऋजु धर्मानुकूल होता है ( तद् इत् ) उस की ही, ( सोमः ) उत्तम शासक विद्वान् रक्षा करता है और ( असत् हन्ति ) असत् को दण्ड और विनष्ट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सत्य की रक्षा असत्य का नाश करें

    पदार्थ

    पदार्थ- (चिकितुषे) = जाननेवाले (जनाय) = मनुष्य के लिये (सत् च असत् च) = सत्य और असत्य दोनों (सुविज्ञानं) = अच्छी प्रकार जानने योग्य हैं, क्योंकि (सत् च असत् च वचसी) = सत्य और असत्य दोनों वचन (पस्पृधाते) = परस्पर स्पर्द्धा करते हैं। दोनों विरोधी होते हैं (तयोः) = उन दोनों में (यत् सत्यं) = जो सत्य है और (यतरत् ऋजीयः) = जो अधिक ऋजु, धर्मानुकूल है (तद् इत्) = उसकी ही, (सोमः) = उत्तम शासक विद्वान् (अवति) = रक्षा करता है और (असत् हन्ति) = असत् को विनष्ट करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- विद्वान् जन अपने विवेक से सत्य और असत्य का निर्णय अच्छी प्रकार से करें। सत्य को भी जानें और असत्य को भी जानें तब सत्य की रक्षा और असत्य का नाश पुरुषार्थपूर्वक करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Words of truth and words of untruth rival and contend with each other. Of these, the one that is true to the extent it is true and that which is simple and natural, this Soma, lord of peace, harmony and the goodness of life, preserves and protects, and the untrue, he destroys. This simple and straight natural knowledge, the lord reveals for the man who has the desire and ambition to know the truth and reality of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    देव व असुर दोघेही सत्यवादी बनू शकतात. देवता म्हणेल, की मी सत्यवादी आहे व असुर म्हणतील की मी सत्यवादी आहे; परंतु ही गोष्ट योग्य नाही याचा निर्णय विद्वानच घेऊ शकतील, की अमूक एक सत्यवादी आहे व अमूक एक असत्यवादी आहे. सत्य ही दोन प्रकारचे असते. जसे ‘‘ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्वात्तपसोऽध्यजायत’’ ॥ऋ. १०।१९०।१॥

    टिप्पणी

    या मंत्रात वाणीच्या सत्याला ऋत म्हणतात हे स्पष्ट केलेले आहे. वस्तुगत सत्यालाही सत्य म्हणतात. जे वाणीगत सत्य व वस्तुगत सत्य बोलणारे व मानणारे असतात, त्यांना देवता म्हटले जाते. अर्थात्, सत्यवादी व सत्य मानी लोकांचे नाव वैदिक परिभाषेत देव व सदाचारी आहे. त्याच्या विपरीत असत्यवादी व असत्यमानी लोकांचे नाव असुर व राक्षस आहे. $ ही गोष्ट असुर या नावाने स्पष्ट होते. कारण ‘असुषुरमन्त इत्य सुर’ जे प्राणमय कोश किंवा अन्नमयकोशात्मक शरीरालाच आत्मा मानतात. त्यांना असुर म्हणतात. याच अभिप्रायाने ‘असुर्या नाम ते लोका:’ यजु: ४०।३ या मंत्रात असुराच्या आत्मीय लोकांना ‘असुर्या:’ म्हटलेले आहे. या परिभाषेनुसार प्रकृती, पुरुष व परमात्मा ज्या वेगवेगळ्या सत्ता न मानणारेही असुरच म्हणविले जातात. भाव हा आहे, की या मंत्रात देव राक्षसाचा निर्णय स्वत: परमात्म्यानेच केलेला आहे. ॥१२॥

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