ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 3
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - इन्द्रासोमौ रक्षोहणी
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
इन्द्रा॑सोमा दु॒ष्कृतो॑ व॒व्रे अ॒न्तर॑नारम्भ॒णे तम॑सि॒ प्र वि॑ध्यतम् । यथा॒ नात॒: पुन॒रेक॑श्च॒नोदय॒त्तद्वा॑मस्तु॒ सह॑से मन्यु॒मच्छव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑सोमा । दुः॒ऽकृतः॑ । व॒व्रे । अ॒न्तः । अ॒ना॒र॒म्भ॒णे । तम॑सि । प्र । वि॒ध्य॒त॒म् । यथा॑ । न । अतः॑ । पुनः॑ । एकः॑ । च॒न । उ॒त्ऽअय॑त् । तत् । वा॒म् । अ॒स्तु॒ । सह॑से । म॒न्यु॒ऽमत् । शवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रासोमा दुष्कृतो वव्रे अन्तरनारम्भणे तमसि प्र विध्यतम् । यथा नात: पुनरेकश्चनोदयत्तद्वामस्तु सहसे मन्युमच्छव: ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रासोमा । दुःऽकृतः । वव्रे । अन्तः । अनारम्भणे । तमसि । प्र । विध्यतम् । यथा । न । अतः । पुनः । एकः । चन । उत्ऽअयत् । तत् । वाम् । अस्तु । सहसे । मन्युऽमत् । शवः ॥ ७.१०४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रासोमा) हे न्यायशील परमात्मन् ! (दुष्कृतः) वेदविरुद्धमाचरतः क्रूरान् (वव्रे) विविधदुःखावृते (अनारम्भणे) अवलम्बनरहिते (तमसि, अन्तः) प्रचण्डनरकमध्ये (प्र, विध्यतम्) प्रवेश्य तथा ताडयतु (यथा) येन हि (अतः) अतो यातनातः (एकश्चन, पुनः, न) एकोऽपि भूयो न (उदयत्) दुष्कर्मसु वृद्धिं प्राप्नुयात्, तथा (तत्) तत्प्रसिद्धं (ताम्) भवतः (मन्युमत्, शवः) सहमन्युना दुष्कर्मापनयनसमर्थेन तेजसा बलं (सहसे, अस्तु) रक्षसां नाशाय भवतु ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रासोमा) हे उक्तशक्तिद्वयप्रधान परमात्मन् ! (दुष्कृतः) जो वेदविरुद्धकर्म करनेवाले दुराचारी हैं, उनको (वव्रे) महादुःखों से आवृत (अनारम्भणे) जिसमें कोई आलम्बन नहीं है, ऐसे (तमसि, अन्तः) घोर नरक में (प्र, विध्यतम्) प्रविष्ट कर ऐसा ताड़न कीजिये (यथा) जिससे कि (अतः) इस यातना से (एकश्चन, पुनः, न, उदयत्) फिर एक भी दुष्कर्म न करे तथा (तत्) वह प्रसिद्ध (वाम्) आपका (मन्युमत्, शवः) मन्युयुक्त बल (सहसे, अस्तु) राक्षसों के नाश करनेवाला हो ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा के मन्यु का वर्णन किया है, जैसा कि अन्यत्र भी कहा है कि ‘मन्युरसि मन्युं महि धेहि’ कि आप मन्युस्वरूप हैं, मुझे भी मन्यु प्रदान करें। मन्यु के अर्थ यहाँ परमात्मा की दमनरूप शक्ति के हैं। जैसा कि ‘महद्भयं वज्रमुद्यतम्’। कठ. ६।२। हे परमात्मन् ! आपकी दमनरूप शक्ति से वज्र उठाये हुए के समान भय प्रतीत होता है। इसमें सन्देह नहीं कि दुष्टों के दमन के लिये परमात्मा भयरूप है, इसी अभिप्राय से कहा है कि ‘भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः’ उसके दमनरूप शक्ति के नियम में आकर सब सूर्य-चन्द्रादि भ्रमण करते हैं, इस भाव को इस सूक्त में वर्णन किया है ॥३॥
विषय
दण्डविधान का आदेश ।
भावार्थ
हे ( इन्द्रासोमा) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! राजन् ! हे (सोम) धर्म का अनुशासन करने वाले विद्वान् जनो ! आप लोग (दुष्कृतः) दुष्ट और दुःखदायी कामना करने वाले दुष्ट पुरुषों को (वव्रे अन्तः ) चारों ओर से घिरे कैद, कारागारादि स्थान के भीतर वा कूए, गढ़े के भीतर और (अनारम्भणे तमसि ) अबलम्बन रहित, निराधार ऐसे अन्धेरे में ( प्र विध्यतम् ) रखकर दण्डित करो जहां कुछ भी सूझ न पड़े । ( यथा ) जिससे (अतः) वहां से ( पुनः एकः चन ) फिर एक भी कोई ( न उत् अयत् ) उठ के ऊपर न आवे । (वाम् ) आप दोनों का (तत् ) वह अद्भुत (मन्युमत् शव:) क्रोध से परिपूर्ण बल पराक्रम ( सहसे अस्तु ) दुष्टों का पराजय करने के लिये सदा बना रहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
आततायी को दण्ड
पदार्थ
पदार्थ- हे (इन्द्रोसोमा) = ऐश्वर्यवन् ! राजन्! हे सोम-विद्वान् जनो! आप लोग (दुष्कृतः) = दुष्ट और दुःखदायी कामनावाले पुरुषों को (वव्रे अन्तः) = चारों ओर से घिरे कृष्णागार स्थान के भीतर और (अनारम्भणे तमसि) = अवलम्बन-रहित, ऐसे अन्धेरों में जहाँ कार्य न किया जा सके (प्रवि ध्यतम्) = रखकर दण्डित करो। (यथा) = जिससे (अतः) = वहाँ से (पुनः एकः चन) = फिर एक भी कोई (न उद् अयत्) = उठ के ऊपर न आवे । (वाम्) = आप दोनों का (तत्) = वह अद्भुत (मन्युमत् शवः) = क्रोध से पूर्ण पराक्रम (सहसे अस्तु) = दुष्ट की पराजय के लिये हो।
भावार्थ
भावार्थ-प्रजा को दुःख देनेवाले दुष्ट आततायी को शासक जन कारावास में डालकर अन्धेरी कालकोठरी में रखकर दण्डित करें जिससे वह आततायी पुन: दुष्ट आचरण करने का साहस न कर सके।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra-Soma, fix the evil doer and throw him into a deep dungeon of darkness without remission so that by reason of that punishment no one again may raise his head for evil doing. That power of yours full of patience, fortitude and courage, that righteous passion of yours be for the destruction of evil and sabotage against life and social harmony.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराच्या मन्युचे वर्णन आहे. जसे इतरत्र म्हटलेले आहे. ‘मन्युरसि मन्यु मयि धेहि’ तू मन्युस्वरूप आहेस. मला ही मन्यू दे. मन्यूचा अर्थ येथे परमेश्वराची दमनरूपी शक्ती आहे. जसे ‘महदभयं वज्रमुद्यतम् ’ ॥ कठ. ६।२॥ हे परमात्मा! तुझ्या दमनरूपी शक्तीने वज्र उचलल्याप्रमाणे भय प्रतीत होते. यात संशय नाही, की दुष्टांचे दमन करण्यासाठी परमात्मा भयरूप आहे. याच अभिप्रायाने म्हटलेले आहे, की ‘भयादस्याग्निस्तपति भयात्रपति सूर्य’ त्याच्या दमनरूपी शक्तीच्या नियमाने सूर्य-चंद्र इत्यादी भ्रमण करतात, हा भाव या सूक्तात आहे. ॥३॥
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