ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 2
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - इन्द्रासोमौ रक्षोहणी
छन्दः - आर्षीजगती
स्वरः - निषादः
इन्द्रा॑सोमा॒ सम॒घशं॑सम॒भ्य१॒॑घं तपु॑र्ययस्तु च॒रुर॑ग्नि॒वाँ इ॑व । ब्र॒ह्म॒द्विषे॑ क्र॒व्यादे॑ घो॒रच॑क्षसे॒ द्वेषो॑ धत्तमनवा॒यं कि॑मी॒दिने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑सोमा । सम् । अ॒घऽशं॑सम् । अ॒भि । अ॒घम् । तपुः॑ । य॒य॒स्तु॒ । च॒रुः । अ॒ग्नि॒वान्ऽइ॑व । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषे॑ । क्र॒व्य॒ऽअदे॑ । घो॒रऽच॑क्षसे । द्वेषः॑ । ध॒त्त॒म् । अ॒न॒वा॒यम् । कि॒मी॒दिने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रासोमा समघशंसमभ्य१घं तपुर्ययस्तु चरुरग्निवाँ इव । ब्रह्मद्विषे क्रव्यादे घोरचक्षसे द्वेषो धत्तमनवायं किमीदिने ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रासोमा । सम् । अघऽशंसम् । अभि । अघम् । तपुः । ययस्तु । चरुः । अग्निवान्ऽइव । ब्रह्मऽद्विषे । क्रव्यऽअदे । घोरऽचक्षसे । द्वेषः । धत्तम् । अनवायम् । किमीदिने ॥ ७.१०४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रासोमा) हे पूर्वोक्तशक्तिद्वयप्रधान परमात्मन् ! (अघशंसम्) अघस्य विरुद्धकर्मणः शंसं प्रशंसितारं (सम्, अघम्) सपापम् (अभि) अभिभवतु (तपुः) सतां सन्तापकः (ययस्तु) दूरं गच्छतु परिक्षीयतां यथा (चरुः, अग्निवान्, इव) हविरग्निना संयोजितं भस्मसात् सम्भवति तथावत् (ब्रह्मद्विषे) वेदानां दूषयितरि (क्रव्यादे) हिंसके (घोरचक्षसे) भीमदर्शने (किमीदिने) किमनेनेति प्रतिकार्ये सन्दिहाने (अनवायम्) निरन्तरं (द्वेषः) द्वेषभावम् (धत्तम्) उत्पादयतु ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रासोमा) हे दण्ड और न्यायरूप शक्तिद्वयप्रधान परमात्मन् ! (अघशंसम्) जो पापमार्ग को इच्छा बतलाता है अथवा ईश्वराज्ञाविरुद्ध कामों की प्रशंसा करता है, (सम्, अघं) जो पापयुक्त है, उसका (अभि) निरादर करो। (तपुः) जो दूसरों को दुःख देनेवाले हैं, वे (ययस्तु) परिक्षीण हो जायें, जैसे कि (चरुः, अग्निवान्, इव) चरु सामग्री अग्नि पर भस्मीभूत हो जाती है। (ब्रह्मद्विषे) जो वेद के द्वेषी हैं, (क्रव्यादे) तथा जो हिंसक हैं, (घोरचक्षसे) जो क्रूर प्रकृतिवाले हैं, (किमीदिने) हर एक बात में शक करनेवाले हैं, उनमें (अनवायम्, द्वेषो, धत्तम्) हमारा निरन्तर द्वेषभाव उत्पन्न कराइये ॥२॥
भावार्थ
जो लोग वेदद्वेषी और अघायु पुरुषों के दमन करने का भाव नहीं रखते, वे परमात्मा की आज्ञा को यथावत् पालन नहीं कर सकते, इसलिये परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे पुरुषो ! तुम पापात्मा धर्मानुष्ठानविहीन धर्मद्वेषी पुरुषों से सदैव ग्लानि करो और जो केवल कुतर्कपरायण होकर अहर्निश धर्मनिन्दा में तत्पर रहते हैं, उनको भी द्वेषबुद्धि से अपने से दूर करो। तात्पर्य यह है कि वैदिक लोगों को चाहिये कि वे सत्कर्मों और धर्मरत पुरुषों का सम्मान करें, औरों का नहीं ॥२॥
विषय
राजा और पुरोहित के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्रासोमा ) ऐश्वर्यवन् ! हे उत्तम शासक जनो ! आप दोनों मिलकर ( अघ-शंसं ) पाप की चर्चा करने वाले और ( अघं ) पापी पुरुष को ( सम् अभि धत्तम् ) अच्छी प्रकार से बांधो, वह ( तपुः ) संतप्त होकर ( अग्निवान् चरुः इव ) अग्नि से युक्त पात्र वा अन्नादि के समान सन्तप्त होकर ( ययस्तु ) पीड़ित हो। और आप दोनों (ब्रह्म-द्विषे) वेद और वेदज्ञ विद्वान् के द्वेषी (क्रव्यादे) कच्चा मांस खाने वाले और ( किमीदिने ) अब क्या अब क्या इस प्रकार मूढ़ और ( घोरचक्षसे ), घोर क्रूर दृष्टि वाले पुरुष को ( अनवायं ) निरन्तर ( द्वेषः धत्तम् ) अप्रीति करो । ऐसे व्यक्तियों से कभी प्रेम न करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
पापी को पीड़ा दें
पदार्थ
पदार्थ- हे (इन्द्रासोमा) = ऐश्वर्यवन् ! हे शासक जनो! आप दोनों (अघ-शंसं) = पाप-चर्चा करनेवाले (अघं) = पापी पुरुष को (सम् अभि धत्तम्) = अच्छी प्रकार बाँधो, वह (तपुः) = संतप्त होकर, (अग्निवान् चरुः इव) = अग्नि- युक्त पात्र के समान सन्तप्त होकर (ययस्तु) = पीड़ित हो। आप दोनों (ब्रह्म-द्विषे) = वेद और वेदज्ञ के द्वेषी (क्रव्यादे) = कच्चे मांस-खोर और (किमीदिने) = अब क्या, अब क्या इस प्रकार मूढ़ और (घोरचक्षसे) = क्रूर-दृष्टि पुरुष को (अनवायं) = निरन्तर (द्वेष: धत्तम्) = अप्रीति करो।
भावार्थ
भावार्थ- शासक जन राष्ट्र में पाप कर्मों को फैलानेवाले पापियों को बन्धन में डालकर पीड़ित करें। वेद के विद्वानों के विरोधी, कच्चा मांस खानेवालों को भी दण्डित करें तथा पूर्वाग्रही मूर्ख लोगों का तिरस्कार करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra-Soma, lord and master of peace and power, love and justice, let the sinner and the criminal, the supporter and admirer of sin and crime along with the sin and crime, and the tormentor of the good and innocent go to the fire of discipline, punishment, or elimination like a handful of dirt meant for the fire. Never compromise with the enemy of nature, divinity, humanity and the wisdom of humanity. Rule out the cannibal and the carrion eater, the man of hate and evil eye, the sceptic, the cynic and the negationist. For them, have the disdain they deserve and either correct them or eliminate them.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक वेदद्वेषी पापी पुरुषांचे दमन करण्याचा भाव ठेवत नाहीत ते परमेश्वराच्या आज्ञेचे पालन करू शकत नाहीत. त्यासाठी परमेश्वर उपदेश करतो, की हे पुरुषांनो! तुम्हाला पापी धर्मानुष्ठान विहीन धर्मद्वेषी पुरुषांबद्दल ग्लानी वाटू द्या व जे केवळ कुतर्क परायण बनून सदैव धर्मनिंदेमध्ये तत्पर राहतात. त्यांनाही द्वेषबुद्धीने आपल्यापासून दूर करा.
टिप्पणी
तात्पर्य हे आहे, की वैदिक लोकांनी सत्कर्मात व धर्मरत पुुरुषांचा सत्कार करावा, इतरांची नाही. ॥२॥
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