Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 104 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मरूतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    वि ति॑ष्ठध्वं मरुतो वि॒क्ष्वि१॒॑च्छत॑ गृभा॒यत॑ र॒क्षस॒: सं पि॑नष्टन । वयो॒ ये भू॒त्वी प॒तय॑न्ति न॒क्तभि॒र्ये वा॒ रिपो॑ दधि॒रे दे॒वे अ॑ध्व॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ति॒ष्ठ॒ध्व॒म् । म॒रु॒तः॒ । वि॒क्षु । इ॒च्छत॑ । गृ॒भा॒यत॑ । र॒क्षसः॑ । सम् । पि॒न॒ष्ट॒न॒ । वयः॑ । ये । भू॒त्वी । प॒तय॑न्ति । न॒क्तऽभिः॑ । ये । वा॒ । रिपः॑ । द॒धि॒रे । दे॒वे । अ॒ध्व॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि तिष्ठध्वं मरुतो विक्ष्वि१च्छत गृभायत रक्षस: सं पिनष्टन । वयो ये भूत्वी पतयन्ति नक्तभिर्ये वा रिपो दधिरे देवे अध्वरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । तिष्ठध्वम् । मरुतः । विक्षु । इच्छत । गृभायत । रक्षसः । सम् । पिनष्टन । वयः । ये । भूत्वी । पतयन्ति । नक्तऽभिः । ये । वा । रिपः । दधिरे । देवे । अध्वरे ॥ ७.१०४.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 18
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मरुतः) हे ज्ञानयोगिनः, कर्मयोगिनश्च पुरुषाः ! यूयं (विक्षु) प्रजासु (वितिष्ठध्वम्) विशेषतया वर्तध्वं (रक्षसः) राक्षसान् ग्रहीतुं (इच्छत) कामयध्वं (गृभायत, सम्, पिनष्टन) ग्रहीत्वा सम्मर्दयत (ये) ये राक्षसाः (वयः, भूत्वी) पक्षिण इव आकाश आगत्य (नक्तभिः) रात्रौ (पतयन्ति) पतित्वा विघ्नन्ति (ये, वा) ये च (देवे, अध्वरे) दिव्ये यज्ञे (रिपः) हिंसां (दधिरे) धारयन्ति ॥१८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मरुतः) हे ज्ञानयोगी तथाकर्म्मयोगी पुरुषो ! आप (विक्षु) प्रजाओं में (वितिष्ठध्वं) विशेषरूप में स्थिर हों और (रक्षसः) राक्षसों के पकड़ने की (इच्छत) इच्छा करें और (गृभायत) पकड़ कर (सं, पिनष्टन) भलीभाँति नाश करें। (ये) जो राक्षस (वयः) पक्षियों के (भूत्वी) समान बनकर (नक्तभिः) रात में (पतयन्ति) गमन करते हैं और (ये, वा) जो (देवे) देवताओं के (अध्वरे) यज्ञ में (रिपः) हिंसा को (दधिरे) धारण करते हैं, उनको आप नष्ट करें ॥१८॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी पुरुषों ! आप लोग आकाशमार्ग में जाकर प्रजा को पीड़ा देनेवाले अन्तरायकारी राक्षसों को क्रियाकौशल द्वारा विमानादि यान बनाकर नाश करें। इस मन्त्र में परमात्मा ने प्रजा की रक्षा के लिए पुरुषों को सम्बोधन करके अन्यायकारी राक्षसों के हनन का उपदेश किया है ॥१८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दुष्टों को कठोर दण्ड

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) वायुवत् बलवान् पुरुषो ( ये ) जो (नक्तभिः) रातों के समय आप लोग ( वयः भूत्वी ) तेजस्वी, प्रकाशयुक्त होकर ( पतयन्ति ) नगर के स्वामी के समान रक्षा करते हैं ( ये वा ) और जो आप लोग (अध्वरे ) हिंसारहित, एवं दुष्टों से अहिंसनीय ( देवे ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के अधीन रहकर ( रिपः ) पापों और दुष्ट पुरुषों को ( दधिरे ) पकड़ते हो वे आप लोग ( विक्षु ) प्रजाओं में (वि तिष्ठध्वम् ) विशेष २ पदों पर विराजमान होवें। और ( वि इच्छत ) विविध ऐश्वर्यों की कामना करो । ( रक्षसः वि गृभायत ) दुष्ट पुरुषों को विविध प्रकार से कैद करो । और उनको ( सं पिनष्टन ) अच्छी प्रकार दबाओ, पीसो, दण्डित करो, कुचलो । अथवा – हे बलवान् पुरुषो ! आप लोग उन दुष्टों को दण्डित करो जो ( वयः भूत्वी ) प्रजा के भक्षक होकर ( नक्तं पतयन्ति ) रात में छुपे प्रजा वा मालिक के समान शासन करते और बहुत धन के स्वामी बन जाना चाहते हैं । और जो ( देवे ) विद्वानों, एवं करप्रद प्रजा और राजा पर और ( अध्वरे ) यज्ञ में ( रिपः दधिरे ) पापकर्म आचरण करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कर्त्तव्यपराण कर्मचारी को पुरस्कार

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (मरुतः) = वायुवत् बलवान् पुरुषो! (ये) = जो (नक्तभिः) = रातों के समय आप लोग (वयः भूत्वी) = प्रकाशयुक्त होकर (पतयन्ति) = नगर स्वामी के समान रक्षा करते हैं (ये वा) = और जो आप लोग (अध्वरे) = हिंसारहित (देवे) = तेजस्वी पुरुष के अधीन रहकर (रिपः) = दुष्ट पुरुषों को (दधिरे) = पकड़ते हो वे आप लोग (विक्षु) = प्रजाओं में (वि तिष्ठध्वम्) = विशेष-विशेष पदों पर विराजें और (वि इच्छत) = विविध ऐश्वर्यों की कामना करें। (रक्षसः वि गृभायस) = दुष्ट पुरुषों को विविध प्रकार से पकड़ो और उनको (सं पिनष्टन) = खूब पीसो, दण्डित करो, कुचलो।

    भावार्थ

    भावार्थ- जो कर्त्तव्यपरायण वीर राज पुरुष रात्रि में नगर तथा प्रजाजनों की रक्षा करते हैं, दुष्टों को पकड़कर दण्डित करते ऐसे राजभक्त कर्मचारियों को राजा पदोन्नति करके प्रोत्साहित करे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, vibrant social powers of vigilance and action, stay among the people, keenly watch for the forces of evil and violence, and there, grab them and crush them all that fly about like birds over the nights and cause disturbance and violence in the divine morning yajnas of love and non-violence for creative production and advancement.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी पुरुषांनो! तुम्ही आकाशमार्गात जाऊन विमान इत्यादी याने बनवून प्रजेला त्रस्त करणाऱ्या राक्षसांचा नाश करावा.

    टिप्पणी

    या मंत्रात परमात्म्याने प्रजेच्या रक्षणासाठी पुरुषांना संबोधन करून अन्यायकारी राक्षसांचे हनन करण्याचा उपदेश केलेला आहे. ॥१८॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top