ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 8
यो मा॒ पाके॑न॒ मन॑सा॒ चर॑न्तमभि॒चष्टे॒ अनृ॑तेभि॒र्वचो॑भिः । आप॑ इव का॒शिना॒ संगृ॑भीता॒ अस॑न्न॒स्त्वास॑त इन्द्र व॒क्ता ॥
स्वर सहित पद पाठयः । मा॒ । पाके॑न । मन॑सा । चर॑न्तम् । अ॒भि॒ऽचष्टे॑ । अनृ॑तेभिः । वचः॑ऽभिः । आपः॑ऽइव । का॒शिना॑ । सम्ऽगृ॑भीताः । अस॑न् । अ॒स्तु॒ । अस॑तः । इ॒न्द्र॒ । व॒क्ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो मा पाकेन मनसा चरन्तमभिचष्टे अनृतेभिर्वचोभिः । आप इव काशिना संगृभीता असन्नस्त्वासत इन्द्र वक्ता ॥
स्वर रहित पद पाठयः । मा । पाकेन । मनसा । चरन्तम् । अभिऽचष्टे । अनृतेभिः । वचःऽभिः । आपःऽइव । काशिना । सम्ऽगृभीताः । असन् । अस्तु । असतः । इन्द्र । वक्ता ॥ ७.१०४.८
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 8
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रः) हे विद्युच्छक्तिधारिन् परमात्मन् ! (पाकेन) शुद्धेन (मनसा) चेतसा (चरन्तम्) आचरन्तं (मा) मां (यः) यो दुर्जनः (अनृतेभिः, वचोभिः) अयथार्थवाग्भिः (अभिचष्टे) दूषयति, सः (काशिना, सङ्गृभीताः) मुष्टिना गृहीतानि (आपः, इव) जलानीव (असन्, अस्तु) अविद्यमानो भवतु, यतो हि सः (असतः, वक्ता) असत्यवाद्यस्तीति ॥८॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्रः) हे विद्युद्शक्तिप्रधान परमात्मन् ! (पाकेन) शुद्ध (मनसा) मन से (चरन्तम्) आचरण करते हुए (मा) मुझको (यः) जो (अनृतेभि, वचोभिः) झूठ बोल कर (अभिचष्टे) दूषित करता है, वह (काशिना, संगृभीताः) मुठ्ठी भरे हुए (आपः, इव) जल के समान (असन्, अस्तु) असत् हो जाय, क्योंकि वह (असतः, वक्ता) झूठ का बोलनेवाला है ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में शुद्ध मन से आचरण करने की अत्यन्त प्रशंसा की है कि जो पुरुष कायिक, वाचिक और मानस तीनों प्रकार से शुद्धभाव और सत्यवादी रहते हैं, उनके समान कोई असत्यवादी ठहर नहीं सकता। तात्पर्य यह है कि मनुष्य को अपनी सच्चाई पर सदा दृढ़ रहना चाहिये ॥८॥
विषय
सत्यासत्य का विवेक करने का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे दुष्टों के नाशकारिन् ! ( यः) जो ( पाकेन ) परिपक्व = दृढ़, सत्ययुक्त ( मनसा ) ज्ञान वा चित्त से अथवा ( पाकेन = वाकेन, ) उत्तम सत्य वचन और (मनसा) उत्तम ज्ञान सहित ( चरन्तम् ) आचरण करने वाले ( मा ) मुझ पर ( अनृतेभिः वचोभिः ) असत्य वचनों द्वारा ( अभि-चष्टे ) आक्षेप करता है वह ( असन् ) असत्य का ( वक्ता ) कहने वाला ( काशिनः संगृभीताः आपः इव ) मुठ्ठी में लिये जलों के समान ( असन् अस्तु ) नहीं सा होकर नीचे गिर पड़े, छिन्न भिन्न होकर नष्ट हो जाय।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
असत्यभाषी विद्वान् को दण्ड
पदार्थ
पदार्थ - हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यवन् ! (यः) = जो (पाकेन मनसा) = परिपक्व दढ़, ज्ञान वा चित्त से अथवा (पाकेन=वाकेन) = सत्य वचन और (मनसा)= उत्तम ज्ञान-सहित (चरन्तम्) = आचरण करनेवाले (मा) = मुझ पर (अनृतेभिः वचोभि) = असत्य वचनों द्वारा (अभि-चष्टे) = आक्षेप करता है वह (असन्) = असत्य का (वक्ता) = कहनेवाला (काशिना संगृभीताः अपः इव) = मुट्ठी में लिये जलों के समान (असन् अस्तु) = नहीं-सा होकर नष्ट हो।
भावार्थ
भावार्थ- यदि कोई विद्वान् किसी निर्दोष व्यक्ति पर झूठे आरोप लगावे तो ऐसे असत्यभाषी विद्वान् को भी राजा दण्ड दे।
Bhajan
🙏 आज का वैदिक भजन 🙏 1181
ओ३म् यो मा॒ पाके॑न॒ मन॑सा॒ चर॑न्तमभि॒चष्टे॒ अनृ॑तेभि॒र्वचो॑भिः ।
आप॑ इव का॒शिना॒ संगृ॑भीता॒ अस॑न्न॒स्त्वास॑त इन्द्र व॒क्ता ॥
ऋग्वेद 7/104/8
सुनृत अनुकाम की प्रभुजी
जगा दो मन में सद्वृत्ति
सत्य की देखें चमत्कृति
यह शुभ चिन्तन व शुभ निश्चय की
उन्नत होवे चित्तवृत्ति
करें हम दूर क्षुद्रकृति
है बैठा जो अन्दर अनृत
है दुश्चिन्तन में वह सम्वृत
वो रोके यज्ञभावों को सतत्
श्रेष्ठ कर्म करे विस्मित
सुनृत अनुकाम की प्रभुजी
जगा दो मन में सद्वृत्ति
सत्य की देखें चमत्कृति
यह कहता है असुर
क्या श्रेष्ठ कर्म का
ठेका लिया है आज
करें जो यज्ञ तो कहता है
धन क्यों करते हो बर्बाद
सुनृत अनुकाम की प्रभुजी
जगा दो मन में सद्वृत्ति
सत्य की देखें चमत्कृति
जो खोलें पाठशाला वेद की
तो हँसी उड़ाते हैं
फौज में भर्ती होने पर कहे
क्यों मरने जाते हैं?
सुनृत अनुकाम की प्रभुजी
जगा दो मन में सद्वृत्ति
सत्य की देखें चमत्कृति
तो सोचा, मन को समझाया
सुनो सच, चल तो सत्य-पथ पर
असुर अनृत का कर दें संहार
भगा दें शत्रु कह कह कर
सुनृत अनुकाम की प्रभुजी
जगा दो मन में सद्वृत्ति
सत्य की देखें चमत्कृति
होवें परिपक्व ऐ साथियों !
चारु-सुदृढ़ कर ले मन अपना
लोहा लेने असद्वक्ता से
कस लें कमर भिड़ जाएँ हम
सुनृत अनुकाम की प्रभुजी
जगा दो मन में सद्वृत्ति
सत्य की देखें चमत्कृति
यह शुभ चिन्तन व शुभ निश्चय की
उन्नत होवे चित्तवृत्ति
करें हम दूर क्षुद्रकृति
सुनृत अनुकाम की प्रभुजी
जगा दो मन में सद्वृत्ति
सत्य की देखें चमत्कृति
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :-- १७.१०.२०२१ २१.१० रात्रि
राग :- अल्हैया बिलावल
गायन समय दिन का प्रथम प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- असत् के वक्ता कि हम दुर्गति कर देंगे भजन ७६१ वां
*तर्ज :- *
00156-756
सुनृत = सत्य और प्रिय
अनुकाम = अनुकरण करना
चमत्कृति = चमत्कार किया हुआ,अनूठा पन
क्षुद्रकृति = ओछा कार्य किया हुआ,गिरा कार्य
अनृत = असत्य,झूठ
संवृत = घिरा हुआ
विस्मित = अचंभित
असुर = राक्षस, दानव
असद्वक्ता = झूठ बोलने वाला
परिपक्व = पूर्णतया कुशल
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
असत् के वक्ता कि हम दुर्गति कर देंगे
हम समय-समय पर कई प्रकार के चिन्तन और निश्चय करते रहते हैं। जब शुभ चिन्तन और शुभ निश्चय करते हैं, तब विरोधी विचार उसमें बाधा डालने का प्रयत्न करते हैं। हमारे अन्दर बैठा हुआ असुर अनृत परामर्श से हमें सूचित करना चाहता है। वह कहता है कि श्रेष्ठ कर्म करने का क्या तुम ही ने ठेका लिया है?
देखो, सब लोग खा पीकर मौज मना रहे हैं, परार्थ कष्ट उठाने का तुम ही क्यों बीड़ा उठाते हो? हम निश्चय करते हैं यज्ञ करने का। असुर कहता है यज्ञ में जितना धन बर्बाद करते हो, उतना अपने तन के लिए खर्च करो तो सेहत बन जाए। हम निश्चय करते हैं बच्चों की पाठशाला खोलकर विद्या प्रचार करने का। असुर कहता है कि तुम से पहले क्या देश के बच्चे सब अनपढ़ और मूर्ख ही होते रहे हैं? हम निश्चय करते हैं वेद प्रचार का। असुर कहता है--वेद प्रचारक लोग अपने घर में तो वेद की धज्जियां उड़ाते हैं, वेद का संदेशा दूसरों को ही सुनाते हैं। हम निश्चय करते हैं फौज में भर्ती होकर शत्रु के छक्के छुड़ाने का, या देशहित बलिदान होने का। असुर कहता है कि देश के करोड़ों नौजवानों में से यह कार्य क्या तुम्हारे ही माथे पर लिखा है?
पर आज हमने अपने मन को परिपक्व कर लिया है, दृढ़ बना लिया है। हम सत्य के पथिक बन गए हैं। अन्दर बैठा राक्षस यदि अनृत(असत्य) परामर्शों से हमारे मन को दूषित करना चाहेगा, तो हम उसकी दुर्गति बना कर ही रहेंगे। देखो, नदी में से मुट्ठी में पानी भरकर मुट्ठी को भींचते हैं, तो क्या होता है? पानी का नामो-निशान नहीं बचता। ऐसी ही हालत हम अन्तरात्मा में बैठे उस पिशाच की कर देंगे, जो हमें अनृत या झूठी सलाहें, परामर्श देगा, सन्मार्ग पर जाने से रोकेगा, कुमार्ग के पथ पर जाने की प्रेरणा करेगा। संसार में उसकी हस्ती नहीं बचेगी। वह असत् का वक्ता स्वयं असत् हो जाएगा।
आओ प्यारे साथियों! मन को परिपक्व करें, सुदृढ़ करें और किसी भी असद् वक्ता से लोहा लेने को तैयार हो जाएं। और सत्य की विजय कराएं।
🕉🧎♂️ईश भक्ति भजन
भगवान् ग्रुप द्वारा 🙏🌹
इंग्लिश (1)
Meaning
And while I live and act and behave with a mature mind of purity and truth, if someone malign me with false words, let him be caught up like water in the hand grip and evaporate in the heat and, O lord Indra, ruler and law giver of power, let him be reduced to nothing because he speaks nothing but falsehood.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात शुद्ध मनाने आचरण करण्याची अत्यंत प्रशंसा केलेली आहे, जे पुरुष कायिक, वाचिक व मानस तिन्ही प्रकारे शुद्धभावयुक्त व सत्यवादी असतात. त्यांच्यासमोर कोणी असत्यवादी थांबू शकत नाही. तात्पर्य हे, की माणसाने आपल्या सत्यवादीपणावर सदैव दृढ राहिले पाहिजे ॥८॥
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