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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यदि॑ वा॒हमनृ॑तदेव॒ आस॒ मोघं॑ वा दे॒वाँ अ॑प्यू॒हे अ॑ग्ने । किम॒स्मभ्यं॑ जातवेदो हृणीषे द्रोघ॒वाच॑स्ते निॠ॒थं स॑चन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । वा॒ । अ॒हम् । अनृ॑तऽदेवः । आस॑ । मोघ॑म् । वा॒ । दे॒वान् । अ॒पि॒ऽऊ॒हे । अ॒ग्ने॒ । किम् । अ॒स्मभ्य॑म् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । हृ॒णी॒षे॒ । द्रो॒घ॒ऽवाचः॑ । ते॒ । नि॒र्ऽऋ॒थम् । स॒च॒न्ता॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि वाहमनृतदेव आस मोघं वा देवाँ अप्यूहे अग्ने । किमस्मभ्यं जातवेदो हृणीषे द्रोघवाचस्ते निॠथं सचन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । वा । अहम् । अनृतऽदेवः । आस । मोघम् । वा । देवान् । अपिऽऊहे । अग्ने । किम् । अस्मभ्यम् । जातऽवेदः । हृणीषे । द्रोघऽवाचः । ते । निर्ऽऋथम् । सचन्ताम् ॥ ७.१०४.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 14
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जीवः शपथरूपेणेश्वराग्रे अनन्यभक्तिं कथयति।

    पदार्थः

    (यदि, वा, अहम्) यदि चेत् अहं (अनृतदेवः) मिथ्यादेवानामभिमन्ता (आस) अस्मि यद्वा (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! (मोघम्) मिथ्या (वा) एव (देवान्) देवताः (अपि, ऊहे) कल्पयामि तदाऽहं नूनमपराध्यस्मि अन्यथा (किम्, अस्मभ्यम्) मदर्थं कुतः (जातवेदः) हे जातानां वेदितः ! (हृणीषे) क्रुध्यसि (द्रोघवाचः) मिथ्यावादिनः (ते) तव (निः ऋथम्) दण्डं (सचन्ताम्) सेवन्ताम् ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    जब जीव के शपथरूप से ईश्वर के आगे अनन्य भक्ति का कथन किया जाता है।

    पदार्थ

    (यदि वा) यदि मैं (अनृतदेवः) झूठे देवों के माननेवाला (आस) हूँ अथवा (अग्नि) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! (मोघं) वा मिथ्या (देवान्) देवताओं की (अप्यूहे) कल्पना करता हूँ, तभी निस्सन्देह अपराधी हूँ। जब ऐसा नहीं, तो (किमस्मभ्यं) हमको क्यों (जातवेदः) हे सर्वव्यापक परमात्मन् ! आप (हृणीषे) हमारे विपरीत हैं, (द्रोघवाचः) मिथ्यावादी और मिथ्या देवताओं के पूजनेवाले (ते) तुम्हारे (निर्ऋथं) दण्ड को (सचन्ताम्) सेवन करें ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में प्रार्थना के भाव से मिथ्या देवों की उपासना का निषेध किया है अर्थात् ईश्वर से भिन्न किसी अन्य देव की उपासना का यहाँ बलपूर्वक निषेध किया है और जो लोग भिन्न-भिन्न देवताओं के पुजारी हैं, उनको राक्षस वा ईश्वर के दण्ड के पात्र बतलाया है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर को छोड़ कर अन्य किसी की पूजा ईश्वरत्वेन कदापि नहीं करनी चाहिये, इस भाव का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥१४॥

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    विषय

    सत्यवादी को दण्ड न देकर पापी को दण्ड देने का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( यदि वा ) और यदि ( अहम् ) मैं ( अनृतदेवः ) असत्य बात का प्रकाश करने वाला हूं अर्थात् ऋत, सत्यानुकूल देन लेन, व्यवहार करने वाला नहीं हूं, हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! अथवा मैं ( देवान् अपि ) विद्वान् पुरुषों को ( मोघं ) झूठ मूठ व्यर्थ ही ( ऊहे ) नाना प्रश्न,वा तर्क वितर्क करता हूं, हे ( जातवेदः ) विद्वन् ! ज्ञानवन् ! (अस्मभ्यम्) विचार करो कि हमारे सुधार के लिये ( किम् हृणीषे ) क्या २ क्रोध कर हमें किस २ प्रकार दण्डित करो । क्योंकि ( द्रोघ-वाचः) द्रोह या परस्पर द्वेष की बात कहने वाले ( ते ) वे नाना लोग भी अवश्य ( निर्ऋथं) अति दुःख और धन, सत्य, अन्न ऐश्वर्यादि से रहित कष्टमय जीवन को ( सचन्ताम् ) प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विद्वानों के द्वेषी को दण्ड

    पदार्थ

    पदार्थ- (यदि वा) = और यदि (अहम्) = मैं (अनृतदेव) = असत्य बात का प्रकाश करनेवाला हूँ, हे (अग्ने) = तेजिस्वन् ! अथवा मैं (देवान् अपि) = विद्वान् पुरुषों से भी (मोघं) = झूठ-मूठ, (ऊहे) = नाना तर्कवितर्क करता हूँ, हे (जातवेदः) = विद्वन् ! ज्ञानवन् ! (अस्मभ्यम्) = विचार करो कि हमारे सुधार के लिये (किम् हृणीषे) = क्या-क्या क्रोध कर हमें किस प्रकार दण्डित करो। क्योंकि (द्रोघ वाचः) = द्वेष की बात कहनेवाले (ते) = वे लोग (निरृथं) = अति दुःखी और सत्य, ऐश्वर्यादि से रहित, कष्टमय जीवन को (सचन्ताम्) = प्राप्त हों।

    भावार्थ

    भावार्थ-यदि कोई व्यक्ति झूठ का सहारा लेता है अथवा विद्वानों से व्यर्थ में तर्क-वितर्क या कुतर्क करके उन्हें कष्ट पहुँचाता है तो ऐसे द्वेषी को भी उत्तम शासक उचित दण्ड अवश्य देवे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    If I were a worshipper of falsehood as my divine ideal, or if I adore the lord and divinities falsely, deceiving them as if, then O lord of light and truth, Agni, you would be angry with me. But I have not been thus, then why would you, knowing everything born in existence, feel angry with us? Not at all, because only the speakers of falsehood would suffer your wrath and punishment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात प्रार्थनेच्या भावाने मिथ्या देवांच्या उपासनेचा निषेध केलेला आहे. अर्थात, ईश्वरापेक्षा भिन्न दुसऱ्या देवाच्या उपासनेचा निषेध केलेला आहे. जे लोक भिन्न भिन्न देवतांचे पुजारी आहेत, त्यांना राक्षस म्हटलेले आहे व ते ईश्वराच्या दंडास पात्र आहेत, असे म्हटलेले आहे.

    टिप्पणी

    तात्पर्य हे, की ईश्वराला सोडून इतर कुणाची पूजा ईश्वरी भावनेने कधीही करू नये, हा भाव या मंत्रात आहे. ॥१४॥

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