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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न वा उ॒ सोमो॑ वृजि॒नं हि॑नोति॒ न क्ष॒त्रियं॑ मिथु॒या धा॒रय॑न्तम् । हन्ति॒ रक्षो॒ हन्त्यास॒द्वद॑न्तमु॒भाविन्द्र॑स्य॒ प्रसि॑तौ शयाते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । वै । ऊँ॒ इति॑ । सोमः॑ । वृ॒जि॒नम् । हि॒नो॒ति॒ । न । क्ष॒त्रिय॑म् । मि॒थु॒या । धा॒रय॑न्तम् । हन्ति॑ । रक्षः॑ । हन्ति॑ । अस॑त् । वद॑न्तम् । उ॒भौ । इन्द्र॑स्य । प्रऽसि॑तौ । श॒या॒ते॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न वा उ सोमो वृजिनं हिनोति न क्षत्रियं मिथुया धारयन्तम् । हन्ति रक्षो हन्त्यासद्वदन्तमुभाविन्द्रस्य प्रसितौ शयाते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । वै । ऊँ इति । सोमः । वृजिनम् । हिनोति । न । क्षत्रियम् । मिथुया । धारयन्तम् । हन्ति । रक्षः । हन्ति । असत् । वदन्तम् । उभौ । इन्द्रस्य । प्रऽसितौ । शयाते इति ॥ ७.१०४.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 13
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोमः) परमात्मा (वृजिनम्) पापिनं (न, वा, उ) तथा न (हिनोति) दण्डयति तथा (मिथुया, धारयन्तम्) मिथ्या साहसिनं (क्षत्रियम्) राजन्यमपि तथा न दण्डयति यथा यावत् (रक्षः, हन्ति) राक्षसान् हिनस्ति (असत्, वदन्तं हन्ति) असत्यवादिनं च हन्ति (उभौ) द्वावपि पूर्वोक्तौ (इन्द्रस्य, प्रसितौ) ऐश्वर्यवतः परमात्मनो बन्धने (शयाते) अवरुद्ध्य दुःखं भुङ्क्तः ॥१३॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (सोमः) परमात्मा (वृजिनम्) पापी को (न, वा, उ) उतना नहीं (हिनोति) दण्ड देता है तथा (मिथुया, धारयन्तम्, क्षत्रियम्) व्यर्थ साहस रखनेवाले क्षत्रिय को भी उतना दण्ड नहीं देता, जितना कि (रक्षः, हन्ति) राक्षसों को (तथा असत्, वदन्तम् हन्ति) झूठ बोलनेवाले को नष्ट करता है। (उभौ) ये दोनों (इन्द्रस्य, प्रसितौ) इन्द्र उस ऐश्वर्यसम्पन्न परमात्मा के बन्धन में (शयाते) बँधकर दुःख पाते हैं ॥१३॥

    भावार्थ

    पापी पुरुष पाप से पश्चात्ताप करने पर अथवा ईश्वर के सम्बन्ध में सन्ध्या-वन्दनादि कर्मों के समय पर न करने से प्रत्यवायरूपी दोषों से मुक्त भी हो सकता है, एवं साहसी क्षत्रिय प्रजारक्षा के भाव से छोड़ा जा सकता है, पर राक्षस=अन्यायकारी, असत्यवादी=मिथ्याभाव प्रचार करनेवाला और मिथ्या आचार करनेवाला पाप से कदापि निर्मुक्त नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि परमात्मा में दया और न्याय दोनों हैं। दया केवल उन्हीं पर करता है, जो दया के पात्र हैं वा यों कहो कि जिनके पाप आत्मा वा परमात्मा सम्बन्धी हैं और जो लोग दूसरों की वञ्चना करते हैं, वे अन्याय करते हैं, उनको परमात्मा कदापि क्षमा नहीं करता अर्थात् यथायोग्य दण्ड देता है, इस प्रकार परमात्मा न्यायशील है ॥१३॥

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    विषय

    सत्यवादी को दण्ड न देकर पापी को दण्ड देने का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( सोमः ) उत्तम शासक जन ( बृजिनं ) पाप और असत्य को ( न वै उ हिनोति) कभी वृद्धि न दे। और ( मिथुया धारयन्तं ) असत्य पक्ष को धारण करने वाले (क्षत्रियम् ) बलशाली पुरुष को भी (न हिनोति ) न बढ़ने दे। ( रक्षः ) दुष्ट पुरुष को ( हन्ति ) दण्ड अवश्य दे, और ( असद् वदन्तम् हन्ति) असत्यवादी को भी दण्ड दे। (उभौ) वे दोनों भी ( इन्द्रस्य प्रसितौ ) दुष्टों के भयकारी पुरुष के उत्तम बन्धन में (शयाते) डाले जायँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    Bhajan

     

    🙏 आज का वैदिक भजन 🙏 769
    ओ३म् न वा उ॒ सोमो॑ वृजि॒नं हि॑नोति॒ न क्ष॒त्रियं॑ मिथु॒या धा॒रय॑न्तम् ।
    हन्ति॒ रक्षो॒ हन्त्यास॒द्वद॑न्तमु॒भाविन्द्र॑स्य॒ प्रसि॑तौ शयातै ॥
    ऋग्वेद 7/104/13
    अथर्ववेद 8/4/13

    सदा मन में सत्य को ही,
    धारण करें,
    सत्य की ही सोमधारा,
    में  नित्य बहें,
    जो असत् पर असत् रचता,
    दुहरी बात करे,
    सोम से वंचित रहे वो,
    पाप कर्म करे
     
    जो मनुष्य निज रचना,
    असत्य की करे,
    सोम के जीवनदायी,
    रस से विच्छिन्न रहे,
    बंधनागार में पड़ के,
    जन्म व्यर्थ खोए,
    ईश के रक्षित गुणों से,
    खुद को दूर करे,
    ईश्वर के रक्षित गुण,
    लाते हैं पुनः ही पुनः,
    पुण्य के बीज ही बो,
    प्रभु का रक्ष 'वृजिन',
    क्यों ना रक्षा करे
    सदा.........

    पाप के कारण यदि,
    पापी धन जो बढ़े,
    शूद्र-बुद्धि वाले उसे प्रभु की,
    कृपा ना कहें,
    सत्य को जो समझे क्यों वो,
    पाप कमाएँ 
    पापी का काँपता कलेजा,
    पाप से घबराए,
    पाप का लौटे फल,
    पापी होता विफल,
    कहता बचाओ प्रभु !
    कष्ट दु:ख से ऊबता मन,
    करता कर्म खरे
    सदा मन में सत्य को ही,
    धारण करें,
    सत्य की ही सोमधारा,
    में  नित्य बहें,
    जो असत् पर असत् रचता,
    दुहरी बात करे,
    सोम से वंचित रहे वो,
    पाप कर्म करे

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :- ३०.३.२००११   १२.१०
    राग :- अल्हैया बिलावल
    गायन समय दिन का प्रथम प्रहर, ताल दादरा ६ मात्रा

    शीर्षक :- सत्य को समझें 
    *तर्ज :- निलाविन्दे नील भस्म (मलयालम भाषा) 

    रक्ष:वृजिन = वर्जनीय(छोड़ने योग्य) पाप से रक्षा
    क्षुद्र = तुच्छ, अल्प,
    विकल = व्याकुल, बेचैन, असमर्थ,

    https://youtu.be/9vrpws4rzJ8?si=V9tHhHEL6R7-Wn5A
    आज बिटिया अदिति ने 90 वां नया वैदिक वीडियो📹 बनाया है जो मैं अपने सभी प्रिय श्रोताओं के साथ शेयर कर रहा हूं  जो वैदिक मन्त्र के प्रचार और प्रसार  के लिए इंग्लिश और हिंदी दोनों versions में होगा। 

    वीडियो निर्माण:-
    अदिति शेठ द्वारा
    गीतकार, गायक और वादक;-
    ललित मोहन साहनी

     

    Vyakhya

       भावार्थ:-
    जगदीश्वर सोमरूप से सब जगत का पालन पोषण कर रहे हैं। सोम-प्रभु के जीवनदायी रस को पाकर ही सब संसार बढ़ रहा है, पुष्ट हो रहा है, पर ये भगवान आपको कभी नहीं बढ़ाते; इनका यह सोमरस पाप को कभी नहीं पहुंचता और सब पापों का स्रोत- मूल, जो असत्यता है, उसे तो परमेश्वर का जीवन रस मिलता ही नहीं है ।
    जब मनुष्य सदा इस तरह वर्तमान 'सत्' के विरुद्ध कुछ और असत् को अपने अंदर रचना करता है, असत् पर असत् दुहरी बातों को अपने अंदर धारण कर लेता है, तो यह 'मिथुया धारयन' यानि मनुष्य अपने इस दूसरे असत्य द्वारा अपने- आपको आच्छादित कर लेता है और, एवं, सत्य की सोम धारा से अपने को वंचित कर लेता है।
     हरेक पाप का करना भी क्रिया द्वारा सत् से इनकार करना है,
     अतः ज्यों ही मनुष्य असत् की अपने में रचना करता है या ज्यों ही वह क्रिया से सत्य-विरुद्ध कर्म( पाप वृजिन) करता है, त्यों ही उसका सतस्वरूप जीवनरसदायी सोम से संबंध विच्छिन्न हो जाता है, वह ईश्वरीय जगत से जुदा हो जाता है, मानो वह परमेश्वर के बंधनागार में पड़ जाता है, अपने असत्य द्वारा ही वह ढ़क जाता है, बंध जाता है। 
    जहां परमेश्वर सोमरूप से सब ठीक चलने वालों को जीवन देकर बढ़ा रहे हैं, वहां (इन्द्र के 'इदं दारयिता')रूप से से ही परमेश्वर विपरीत गामी को जुदा करके बांधनेवाले भी हैं।
     इस तरह असत्य बोलने वाला या पाप करने वाला जीवन- रस से वंचित होकर सूख कर नष्ट हो जाता है। 
    इसलिए वर्जनीय  होने से आपका नाम 'वृजिन' है तथा पाप ही 'रक्ष:' कहलाता है, क्योंकि इससे अपने आपको सदा रक्षित रखना चाहिए। 
    इस 'वृजिन'को, 'रक्ष:' को, वह परमेश्वर नष्ट ही कर देता है, कभी बढ़ाता नहीं। 

    मनुष्य यदि इस सत्य को समझे, इसमें उसे जरा भी संदेह ना, हो तो वह पाप करते हुए घबराए और असत्य बोलते हुए उसका कलेजा कांपे। 
    संसार में यद्यपि हमें दीखता है कि परमेश्वर भी पाप को ही मदद दे रहा है और झूठे को बढ़ा रहा है परन्तु हम क्षुद्र,छोटी, बुद्धि वाले अल्पज्ञों का यह भ्रम है। हम अल्पज्ञ देख नहीं सकते कि किस पाप का फल कब और कैसे मिलता है?    
     

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    विषय

    असत्यवादी को कारावास

    पदार्थ

    पदार्थ- (सोमः) = उत्तम शासक (वृजिनं) = असत्य को (न वै उ हिनोति) = कभी वृद्धि न दे और (मिथुया धारयन्तं) = असत्य के धारक (क्षत्रियम्) = बलशाली पुरुष को भी (न हिनोति) = न बढ़ने दे। (रक्षः) = दुष्ट पुरुष को (हन्ति) = दण्ड दे, और (असद् वदन्तम् हन्ति) = असत्यवादी को दण्ड दे। (उभौ) = वे दोनों भी (इन्द्रस्य प्रसितौ) = दुष्टों के भयकारी पुरुष के उत्तम बन्धन में (शयाते) = डाले जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम शासक कभी भी झूठ को आश्रय न दे। झूठे सामर्थ्यवान् पुरुष को भी दण्ड दे तथा कारावास में बन्द करे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, lord of truth, peace and harmony, does not call forth the crooked to the distinction between truth and untruth, nor does he impel the selfish kshatriya, ruler administrator, who parades his power and valour in a false manner, nor does he incite the two toward the untrue. But he does destroy the evil and the wicked and also the one who speaks the untruth, since both the evil and the liar end up in the bonds of Indra, lord of justice and power.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पापी पुरुष पाप करून पश्चात्ताप केल्यामुळे किंवा ईश्वरासंबंधी संध्यावंदन इत्यादी कर्म वेळेवर न केल्यामुळे प्रत्यवायरूपी दोषांपासून मुक्तही होऊ शकतो व साहसी क्षत्रियाला प्रजारक्षणाच्या भावाने त्यागताही येऊ शकतो; परंतु राक्षस= अन्यायकारी, असत्यवादी= मिथ्याभावाचा प्रचार करणारा व मिथ्या आचार करणारा पापापासून कधीही निर्मुक्त होऊ शकत नाही.

    टिप्पणी

    तात्पर्य हे, की परमेश्वरात दया व न्याय या दोन्ही आहेत. दया फक्त त्यांच्यावरच करतो जे दयेस पात्र आहेत. जे आत्म्यासंबंधी व परमात्म्यासंबंधी पापी असतात व दुसऱ्याची फसवणूक करतात. त्यांना परमश्ेवर कधीही क्षमा करीत नाही. अर्थात, यथायोग्य दंड देतो. याप्रमाणे परमेश्वर न्याय करतो. ॥१३॥

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