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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो माया॑तुं॒ यातु॑धा॒नेत्याह॒ यो वा॑ र॒क्षाः शुचि॑र॒स्मीत्याह॑ । इन्द्र॒स्तं ह॑न्तु मह॒ता व॒धेन॒ विश्व॑स्य ज॒न्तोर॑ध॒मस्प॑दीष्ट ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । मा॒ । अया॑तुम् । यातु॑ऽधा॒न । इति॑ । आह॑ । यः । वा॒ । र॒क्षाः । शुचिः॑ । अ॒स्मि॒ । इति॑ । आह॑ । इन्द्रः॑ । तम् । ह॒न्तु॒ । म॒ह॒ता । व॒धेन॑ । विश्व॑स्य । ज॒न्तोः । अ॒ध॒मः । प॒दी॒ष्ट॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो मायातुं यातुधानेत्याह यो वा रक्षाः शुचिरस्मीत्याह । इन्द्रस्तं हन्तु महता वधेन विश्वस्य जन्तोरधमस्पदीष्ट ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । मा । अयातुम् । यातुऽधान । इति । आह । यः । वा । रक्षाः । शुचिः । अस्मि । इति । आह । इन्द्रः । तम् । हन्तु । महता । वधेन । विश्वस्य । जन्तोः । अधमः । पदीष्ट ॥ ७.१०४.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 16
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः) यो दुष्टः (मा) माम् (अयातुम्) अदण्ड्यं (यातुधानेति) यातुधानोऽसीति (आह) कथयति (वा) यद्वा (यः, रक्षाः) राक्षसः (शुचिः) अपवित्रः (अस्मि, इति, आह) अस्मीति कथयति (तम्) तादृशं राक्षसं (इन्द्रः) परमात्मा (महता, वधेन) महता दिव्येन शस्त्रेण (हन्तु) हिनस्तु (विश्वस्य, जन्तोः) सर्वेभ्यो जन्तुभ्यः (अधमः) नीचः सन् (पदीष्ट) नश्यतु सः ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो राक्षस (मा) मुझको (अयातुं, यातुधानेत्याह) राक्षस कहता है और (यः) जो (रक्षाः) राक्षस होकर (शुचिरस्मि) मैं पवित्र हूँ, (इत्याह) ऐसा कहता है (इन्द्रः) परमात्मा (तं) उस साधु को असाधु कहनेवाले को और अपने आपको असाधु होकर साधु कहनेवाले को (महता, वधेन) तीक्ष्ण शस्त्र से (विश्वस्य) संसार के ऐसे (जन्तोः) जो (अधमः) अधम हैं, परमात्मा (पदीष्ट) नाश करे ॥१६॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे जीवो ! तुम में से जो पुरुष सदाचारियों को मिथ्या ही दूषित करते हैं और स्वयं दम्भी बनकर सदाचारी, सत्यवादी और सत्यमानी बनते हैं, न्यायकारी राजाओं का काम है कि ऐसे पुरुषों को यथायोग्य दण्ड दें ॥१६॥

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    विषय

    असत्यारोपी को दण्ड ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( अयातुं मा ) अन्य को पीड़ा न देने वाले अहिंसक को ( यातुधान इति आह ) पीड़ा देने वाला, हिंसक ऐसा बतलावे ( वा ) और ( यः ) जो ( रक्षाः ) स्वयं दुष्ट पुरुष होकर ( शुचिः अस्मि इति आह) मैं निर्दोष हूं, ऐसा अपने को बतलावे ( इन्द्रः) राजा ( तं ) मैं उसको ( महता वधेन ) बड़े भारी शस्त्र से (हन्तु) मारे और वह (विश्वस्य जन्तोः) समस्त पापियों से (अधमः) अधम, नीचा (पदीष्ट) समझा जावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    असत्य आरोप लगानेवाले को दण्ड

    पदार्थ

    पदार्थ - (यः) = जो (अयातुं मा) = अन्य को पीड़ा न देनेवाले मुझको यातुधान (इति आह) ='पीड़ा देनेवाला' ऐसा कहे (वा) = और (यः) = जो (रक्षाः) = स्वयं दुष्ट पुरुष होकर (शुचिः अस्मि इति आह) = मैं निर्दोष हूँ, ऐसा कहे (इन्द्रः) = राजा (तं) = उसको (महता वधेन) = बड़े भारी शस्त्र से (हन्तु) = मारे और वह (विश्वस्य जन्तोः) = समस्त पापियों से (अधमः) = नीचा पदीष्ट समझा जावे।

    भावार्थ

    भावार्थ-यदि कोई दुष्ट निर्दोष लोगों पर पीड़ित करने का झूठा दोष लगावे या दोषी होकर भी स्वयं को निर्दोष बतावे ऐसे धूर्त को शस्त्र के प्रहार से [कोड़े आदिलगाकर] शासकवर्ग दण्डित करे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Whoever says that I am a devil even though I am not a devil, and whoever says that he is innocent and immaculate even though he is a devil, may Indra, lord of power and justice, punish such a person with his mighty thunderbolt. May such a falsifier fall to the abyss as the worst of all living beings.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे जीवांनो! तुमच्यापैकी जे पुरुष सदाचारी लोकांची खोटी निंदा करतात व स्वत: ढोंगी बनून सदाचारी सत्यवादी व सत्यमानी बनतात. न्यायकारी राजांनी अशा पुरुषांना यथायोग्य दंड द्यावा. ॥१६॥

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